नईदिल्ली, 15 दिसंबर. बहुत ही मजेदार बात है कि आरक्षित वर्ग का कोई उम्मीदवर जब सरकारी नौकरी के लिये चयनित होता है तो उसके जाति प्रमाणपत्र की जांच नौकरी में ज्वानिंग के समय नहीं बल्कि जब सेवानिवृत होता है उस समय होती है. अपवाद तभी होता है जब किसी की इस बारे में शिकायत हो तो जांच बीच में शुरू करनी पड़ती है पर वो भी किस कछुआ चाल से चलती है यह किसी से छिपा नहीं है. नतीजा यह होता है कि जांच के बाद गड़बड़ी मिले तो नौकरी करने वाले को ढेरों परेशानियों का सामना करना पड़ता है और प्रशासन को वसूली आदि की लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. किसने गलती की उसे तलाशना तो भूंसे के ढ़ेर से सूई तलाशने जैसा होता ही है. आजादी के सत्तर से ज्यादा साल बाद संसदीय व्यवस्था की नींद टूटी और एक संसदीय समिति ने सिफारिश की है कि यह जांच तो तभी करनी होगी जब चयनित व्यक्ति नौकरी ज्वाइन करता है. इसके लिये ज्यादा से ज्यादा छह माह का समय दिया जा सकता है. क्या इससे पता नहीं चलता है कि कितनी कुंभकर्णी नींद सोता है हमारा लोकतंत्र और नौकरशाही. इसमें सबकी मंशा भ्रष्टाचार की गंदी नाली में मुंह धोने की नजर आये तो क्या यह गलत कहा जाएगा?