महिला लापता होने पर राजनीति नहीं, सामाजिक विमर्श कीजिये. 2 अगस्त राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार भोपाल.
मध्यप्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के मध्य एक दूसरे पर आरोप लगाने की होड़ चल रही है. होड़ का विषय शर्मनाक है, परन्तु शर्म और राजनीति में कोई सम्बन्ध नहीं है यह भी इस होड़ में साबित करने में दोनों दल लगे हैं. विषय प्रदेश में लाखों महिलाओं का लापता होना है. यह सभ्य समाज के लिए कलंक और शर्म की बात है, राजनीतिक दलों को एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की जगह अपने-अपने गिरेबान में झांकना चाहिए.
इन आंकड़ों पर अविश्वास का कोई कारण नजर नहीं आता कि देश में दो साल के भीतर 13.13 लाख महिलाएं और लड़कियां लापता हुईं. वजह यह कि आंकड़ा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी ने जुटाया है और संसद के पटल पर रखा गया है. वैसे इस बात की कोई गारंटी भी नहीं कि देश के दूर-दराज के इलाकों से लापता हर महिला और लड़की की गुमशुदगी भी इन आंकड़ों में शामिल हो. वैसे भी बहुत से लोग कथित इज्जत के नाम पर रिपोर्ट दर्ज कराने से गुरेज करते है. बहराल, यह किसी सभ्य समाज के माथे पर कलंक ही है कि महज दो साल में तेरह लाख से अधिक महिलाएं और लड़कियां गायब हो जाएं और उनकी कोई खैर-खबर न मिले.
यह सारा संकट जहां पुलिस-प्रशासन की नाकामी को दर्शाता है, वहीं समाज को भी आत्ममंथन को बाध्य करता है कि हमने ऐसी स्थितियां क्यों बनने दी कि महिलाओं ने परेशान होकर घर छोड़ा या फिर वे असामाजिक तत्वों के चंगुल में फंस गईं.निस्संदेह, यह दुखद स्थिति है और लापता होने का आंकड़ा बहुत बड़ा है और चीन के बाद दुनिया में दूसरे नंबर पर है. यह विडंबना ही है कि मणिपुर मुद्दे पर जारी राजनीतिक कोलाहल के बीच इस ज्वलंत मुद्दे पर गंभीर राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं आई. दुखद स्थिति यह भी है कि लापता होने वाली महिलाओं में ढाई लाख की संख्या नाबालिग लड़कियों की है. कहना मुश्किल है कि वे मानव तस्करी करने वालों के हत्थे चढ़ीं या अपने किसी परिचित के साथ नये जीवन की शुरुआत के लिये निकलीं.
यह कहना कठिन है कि 2021 के बाद स्थितियां बदल गईं और इन आंकड़ों में कुछ लाख और महिलाएं व लड़कियां शामिल नहीं होंगी. लेकिन कुल मिलाकर हमारे समाज में स्थितियां ऐसी नहीं हैं कि एक आम महिला आत्मसम्मान व सुरक्षा का जीवन सहजता से जी सके. जिसको लेकर गंभीर मंथन करने की जरूरत है.
तेरह लाख महिलाओं व लड़कियों का लापता होना समाज में विमर्श की मांग करता है कि आखिर वे गई कहां. निश्चित रूप से हालिया वर्षों में समाज में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में खासी तेजी आई है. निर्भया कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिये जो सख्त कानून बने भी, उनका अपेक्षित प्रभाव समाज में नजर नहीं आता. आये दिन समाज में महिलाओं के अपहरण, बहला-फुसलाकर भगा ले जाने तथा मानव तस्करी के समाचार अखबारों की सुर्खियां बनते रहते हैं. ऐसे में हम इन महिलाओं के लापता होने के लिये सिर्फ सरकार को ही दोषी नहीं ठहरा सकते. पिछले दिनों कुछ ऐसी घटनाएं सामने आई हैं कि अपराधी व सिरफिरे आशिक एकतरफा प्यार में विफलता के बाद सार्वजनिक रूप से लड़कियों की हत्या करते रहे और भीड़ तमाशबीन बनी रही या वीडियो बनाने में मशगूल रही. ऐसे में महिलाओं व लड़कियों के लापता होने में समाज अपने उत्तरदायित्व से बच नहीं सकता.
मणिपुर में महिलाओं के साथ हुई क्रूरता ने देश को दुनिया में शर्मसार किया, जहां जातीय दुश्मनी के बदले का शिकार महिलाओं को बनाया गया. ऐसे में समाज के हर व्यक्ति को आत्ममंथन करना होगा कि क्या हम ऐसा समाज बनाने में योगदान दे रहे हैं,जहां किसी भी महिला के लापता होने की स्थिति न बने. कन्या भ्रणहत्या करने वाले तथा दहेज के लिये विवाहिता को मारने वाले भी इसी समाज का हिस्सा हैं, जो महिलाओं के प्रति क्रूरता का ही एक रूप है. देश के कई भागों में असंतुलित लिंग अनुपात भी स्त्री विरोधी सोच की बानगी है. यह सोच महज सख्त कानून से नहीं बदलने वाली.
हमें सोचना होगा कि महिलाएं क्यों यौन हिंसा की शिकार बन रही हैं? क्यों समाज में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, अपहरण व दुष्कर्म के मामले लगातार बढ़ रहे हैं? जाहिरा तौर पर ये समाज में पनप रही विषाक्त सोच की ही परिणति है. यह तय है कि किसी भी समाज में महिलाओं की स्थिति उसके सभ्य या असभ्य होने का परिचायक है. हमें अपने गिरेबां में झांकना होगा कि हम इस कसौटी पर कहां खड़े हैं? जिसके लिये समाज और राजनीतिक नेतृत्व को गंभीर पहल करनी होगी.