बुरे फंस गये हैं उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे 22 फरवरी 2023
सुप्रीम कोर्ट आज 22 फरवरी बुधवार को दोपहर 3 बजे उद्धव ठाकरे की चुनाव उस याचिका पर अर्जेंट हीयरिेग के तहत सुनवाई करेगा जिसमें आयोग के शिवसेना को असली शिवसेना घोषित कर उसे पार्टी का नाम शिवसेना और चुनाव चिन्ह तीर कमान देने का फैसला 17 फरवरी शुक्रवार को सुनाया था. हालांकि मुझे लगता नहीं है कि सुनवाई के बाद अदालत को ऑर्डर सुनाएगी या अंतरिम स्थगन जैसी कोई राहत देगी. क्योंकि उद्धव ठाकरे की दलबदल संबंधी याचिका पर सुनवाई के समय ही सुप्रीम कोर्ट ने तय कर दिया था कि दलबदल याचिका और असली शिव सेना संबंधी चुनाव आयोग के सामने विचाराधीन याचिका अलग अलग हैं. इसलिये चुनाव आयोग उस पर सुनवाई कर फैसला सुना सकता है.
हां सुप्रीम कोर्ट फैसले की कानूनी और संवैधानिक वैधता पर सुनवाई कर सकता है वह कर ही रहा है. शिवसेना की आपत्ति ही यही है कि जब सुप्रीम कोर्ट में शिवसेना विवाद से जुड़ा मामला विचाराधीन है तो फिर आयोगको जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये थी. वैसे तकनीकी तर्क यह है कि चुनावआयोग ने सन 2018 के शिवसेना के संविधान को आधार बना कर फैसला किया है जबकि संविधान में 2019 में सुधार कर सारे हक शिवसेना अध्यक्षको उद्धव ठाकरे को दे दिये गये थे. यह हक 2018 के संविधान में नहीं दिया गया था.
उद्धव ठाकरे और उनके समर्थकों की आपत्ति से तो इससे ज्यादा है. उन्हें तो चुनाव आयोग की मंशा पर ही शक प्रतीत होता है. उनका कहना है क उपचुनाव के बहाने एकनाथ शिंदे चुनाव आयोग आये और अलग अलग नाम और चुनाव चिन्ह की अस्थाई व्यवस्था करवा कर ले गये. फिर न शिंदे की शिवसेना मुंबई में उपचुनाव लड़ी न भाजपा. वॉकओवर दे दिया. उसके बाद चुनाव आयोग ले तरह तरह के ढ़ेरों दस्तावेज, हलफनामें, सूचियां मंगवाई और बिना सबको देखे परखे केवल 2018 के पार्टी संविधान के आधार पर फैसला कर दिया जबकि हमें 2019 का संशोधित संविधान रखने का अवसर तक नहीं दिया गया. वह कह रहे हैं कि पार्टी में कार्यकर्ता, संगठन और संविधान का महत्व होता है. केवल चुने हुए सांसद और विधायक की पार्टी के सर्वेसर्वा नहीं हो जाते हैं. ऐसे में तो किसी की पार्टी के जनप्रतिनिधि अपने स्वार्थो के लिये बनी बनाई पार्टी को तोड़ देंगे. इससे एक खतरनाक प्रवृत्ति का जन्म हो जाएगा.
खैर आयोग कें फैसले के बाद महाराष्ट्र विधानसभा में और लोकसभा में शिवसेना को आवंटित कक्ष एकनाथ शिंदे के गुट को सौंप दिये गये हैं.चर्चा अब पाठी के दो सौ करोड़ से ज्यादा के पार्टी फंड, शिवसेना मुख्यालय और मुंबईमें ही पार्टी के दो सौ से ज्यादा कार्यालयों को लेकर है. इस बारे में बस चर्चाएं ही हैं. क्योंकि शिवसेना संगठन से ज्यादा भावनात्मक हवा में चलने वाली पार्टी है इसलिये एकनाथ शिंदे सोच समझ कर कदम उठा रहे हैं. सहयोगी भाजपा भी शिवसेना को बनाए रखने की राजनीतिक अहमियत समझ रही है. उसे हर कीमत पर एकनाथ शिंदे को परिदृश्य में बनाए रखना है इसीलिये एक वक्त पर देवेन्द्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री बनाने के बजाय एकनाथ शिंदे को बनाया. लेकिन सारे पत्ते एकनाथ शिंदे के हाथ में न रहें इसलिये देवेन्द्र फड़नवीस को उपमुख्यमंत्री पद के लिये राजी कर लिया.
उद्धव ठाकरे कानूनी लड़ाई तो लड़ ही रहे हैं और पार्टी का नाम और चुनव चिन्ह तीर कमान को पाने के लिये सुप्रीम कोर्ट को ही अंतिम आशा बता रहे हैं. पर लगता यही है कि उन्होंने शरद पवार की इस सलाह पर भी ध्यान दिया है कि नए सिरे से अपनी सेना खड़ी करने की दिशा मेें काम करें. इयलिये भी जब वह कहते हैं कि पार्टी का नाम और चुनाव चिन्हं चोरी कर लिय गया है और वे उसे छुड़ा लाएंगे. वह यह भी कहने लगे हैं कि उनसे उनके पिता का नाम कौन छुड़ा सकता है. वे बालासाहेब ठाकरे के बैटे हैं जिन्होंने शिवसेना बनाई थी. वे उन्हीं के आदर्शो पर चल रहे हैं.
इस भावनात्क अपील का कोई तोड़ नहीं है. जानकार कहते हैं कि बालासाहेब ठाकरे ने शिवाजी पार्क की शिवसेना की रैली में अपने हाथों उद्धव ठाकरे को शिवसेना की कमान सौंपी थी और शिवसैनिकों से आग्रह किया था कि जिस प्रकार आपने मेरा साथ दिया मुझे संभाला उसी प्रकार उद्धव को संभालना. मैं इसे आपके हाथों सौंप रहा हूं.
तब भी कहा यही जा रहा था राज ठाकरे बाला साहेब के सही उत्तराधिकरी होते लेकिन ऐसा नहीं हुआ. राज ठाकरे ने अलग पार्टी बनाई पर धीरे धीरे ही सही वे आज राजनीति के बियाबान में भटक रहे है उनकी पार्टी का सिर्फ एक विधायक है. यही नहीं जिन जिन ने शिवसेना छोड़ी उन्हें हार का ही सामना करना पड़ा है क्योंकि शिवसेना भावनाओं के ज्वार पर चलने वाली पार्टी है. वह ज्वार ठाकरे परिवार के माध्यम से उठता है. हिंदूत्व तो उसमें बल प्रदान करता है.
जानकार सुप्रीम कोर्ट में चल रहे दलबदल संबंधी मामले में भी बता रहे हैं कि दलबदल कानून के चलते एकनाथ शिंदे के साथ गये विधायकों और सांसदों को या तो भाजपा में विलय करना था या अलग पार्टी बनानी थी. वे भाजपा की बजाय राज ठाकरे की पार्टी में भी अपने गुट का विलय कर सकते थे. उनके साथ भी एक ऐसी छोटी सी पार्टी के विधायक थे जिसमें विलय करते तो भी काम चल जाता. लेकिन एकनाथ शिंदे जानते थे कि राज ठाकरे क्यों एकनाथ शिंदे को स्वीकार करेंगे न शिेंदे ही राज ठाकरे को पचा पाएंगे. वैसे भाजपा भी समझ रही थी कि फिलहाल शिवसेना और बालासाहेब का नाम जरूरी है इसलिये उसने भी इस पर ज्यादा माथापच्ची न कर भविष्य के लिये इस सवाल को छोड़ दिया. अब अगर सुप्रीम कोर्ट दलबदल कानून के तहत एकनाथ शिंदे के विधायकों की सदस्यता रदद करने का फैसला देर अबेर सुना दे जिसकी काफी संभावना है तो सब कुछ उलट पलट होते देर रहीं लगेगी.
- ओमप्रकाश गौड़, वरिष्ठ पत्रकार भोपाल, मो. 9926453700
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