बढ़ता स्क्रीन टाइम, घटती जिंदगी

Category : आजाद अभिव्यक्ति | Sub Category : सभी Posted on 2021-06-05 10:21:53


बढ़ता स्क्रीन टाइम, घटती जिंदगी

बढ़ता स्क्रीन टाइम, घटती जिंदगी 

- राकेश अचल, वरिष्ठ पत्रकार ग्वालियर

आज मै जिस मसले पर बात कर रहा हूँ उसमें न कहीं मोदी जी आएंगे और न कहीं जूनियर भगवान, भले ही जूनियर भगवानों की वजह से मध्य प्रदेश में 20 मरीज अपनी जान गंवा चुके हैं. आज का मसला है बढ़ता हुआ स्क्रींन टाइम और घटती जिंदगी. दरअसल ये स्क्रीन टाइम हमारे साथ है तो लम्बे आर से, लेकिन इसका हमारी जिंदगी में दखल बढ़ा है बीते 15 महीने से ही है .ये पंद्रह महीने हैं कोरोनाकाल के. इस स्क्रीन टाइम ने भी हमारी सेहत को दीमक की तरह चाटना शुरू कर दिया है और हमें इसकी खबर तक नहीं है.

स्क्रीन हमारे सामने हमेशा से है. पहले ये सिनेमाघरों में थी, फिर टेलीविजन की ईजाद के बाद घरों में पहुंची और एंड्राइड मोबाइल फोन और घड़ियों के ईजाद के बाद तो स्क्रीन ने हर एक आदमी पर अपना कब्जा कर लिया है. पहले पहल हम जब स्क्रीन के मुखातिब होते थे तो हम शान से अकड़े होते थे, लेकिन आज स्क्रीन हमरे जिस्म को आकड़ाये दे रही है. कितना स्क्रीन टाइम इंसान के लिए मुफीद है इसकी कोई सीमा नहीं है लेकिन खुद हमारी स्क्रीन इतनी ईमानदार है की हमसे 7.30 घंटे साथ रहनेके बाद इत्तला देती है की - अब हमें स्क्रीन छोड़कर सुस्ता लेना चाहिए.

बीते दो सप्ताह से मै खुद इस स्क्रीन टाइम के साइड इफेक्ट्स की चपेट में हूँ. मेरी तर्जनी में निरंतर वेदना है, आँखें ललछौंहीं रहतीं है, लगता है जैसे आँखों में कोई किरकिरी है, नींद ठीक से नहीं आती. अपने चिकित्स्क से इस बाबत बात की तो उन्होंने सबसे पहला सवाल यही किया की - आपका स्क्रीन टाइम कितना है ?. अपने राम इस नए जुमले के बारे में जानते ही नहीं हैं, लेकिन डाक्टर साहब ने जब तफ्सील से बताया तो पता चला की आज दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी इस नयी बीमारी की चपेट में हैं.

स्क्रीन टाइम को लेकर सबसे ज्यादा परेशानियां कोरोनाकाल में बढ़ीं हैं. कोरोना के कारण सबसे ज्यादा परेशानी बच्चों और अभिभावकों को झेलनी पड़ रही है. मौजूदा हालातों में स्कूल कब खुलेंगे कहा नहीं जा सकता. जिसके चलते सरकार के निर्देशों के मुताबिक सरकारी व निजी स्कूल प्रबंधकों की ओर से ऑनलाइन शिक्षा का प्रबंध किया गया है. ऑनलाइन क्लासेस में स्क्रीन टाइम बढ़ने से छात्रों को विभिन्न तरह की समस्याएं आना शुरू हो गई हैं. चार साल के बच्चे से लेकर 80 साल तक के बूढ़े इस संक्रणकाल में स्क्रीन के गुलाम है. बच्चों के स्कूल बंद हैं और पढ़ाई आनलाइन हो रही है, सो उन्हें तो मजबूरन स्क्रीन के सामने बैठना है, लेकिन हम जैसे नाकार लोग खामखां स्क्रीन के सामने हैं.

दुनिया को जैसे कोरोना और ब्लैक फंगस गुमनाम रास्तों से शरीर में घुसकर आक्रमण करती है ठीक वैसे ही स्क्रींन टाइम भी कर रहा है. स्क्रीन टाइम की अधिकतम सीमा पार करने वालों के दिल, दिमाग और स्नायुतंत्र की बधिया बैठी जा रही है और उन्हें इसकी कानों-कान खबर नहीं है. कई बीमारियों का कारण तो वर्क फ्रॉम होम है, जिसकी वजह से लोगों का ब्लड प्रेशर, ब्लड शुगर और मोटापा बढ़ रहा है. बैठे-बैठे जहां पाचन तंत्र धीमा पड़ गया है वहीं इससे अजीब सी थकान महसूस होती है. ये थकान न सिर्फ शरीर को परेशान कर रही है बल्कि आपके मानसिक स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचा रही है. इन सबसे में सबसे बड़ा हाथ कंप्यूटर और मोबाइल है. दरअसल कंप्यूटर और मोबाइल स्क्रीन से आने वाली रोशनी आपके मस्तिष्क पर एक खास असर डालती है. इसके कारण दिमाग के नर्वस को परेशानी होती है, जो कि सिर दर्द को  बढ़ाता है.

आजकल मै अमरीका में हूँ, यहां हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि  कोरोना महामारी के दौरान लोगों में वर्क फ्रॉम होम करने से माइग्रेन का दर्द बड़ी तेजी से बढ़ा. सर्वेक्षणों से पता चला है कि संयुक्त राज्य अमेरिका में 40 प्रतिशत से अधिक लोग अब घर से काम करते हैं, और उनमें से अधिकतर हो माइग्रेन की परेशानी हो रही है. मेरा बेटा खुद चिड़चिड़ा हो गया है. भारत में मेरे नाती-पोतों का भी यही हाल है. मै जब भी उनसे बात करना चाहता हूँ, वे थके, उदास और बीमार से नजर आते हैं. तीन साल का आरव तो फोन की घंटी बजते ही काट देता है क्योंकि वो खुद मोबाइल पर किसी गेम में उलझा होता है.

स्क्रीन टाइम का हमला पूरी दुनिया पर है. लोग 24 में से औसतन 14-15 घंटे स्क्रीन के सामने बिता रहे हैं. कुछ की मजबूरी है और कुछ अज्ञानता का शिकार हैं. जिनकी रोजी-रोटी स्क्रीन के सामने बैठने से ही चल रही है उनके बारे में तो कोई क्या कर सकता है लेकिन जिनका स्क्रीन टाइम से कोई लेना देना नहीं है वे भी कम से कम 8 घंटे तो स्क्रीन के साथ बैठकर बीमारियों को आमंत्रित कर रहे हैं, कर चुके हैं.

फिलाडेल्फिया में पेन मेडिसिन के विशेषज्ञ कैथरीन हैमिल्टन, की मानें जो कि इस रिपोर्ट के लेखक भी हैं, तो उनका कहना है कि ज्यादा देर तक स्क्रीन के सामने रहना लोगों में माइग्रेन के दर्द को ट्रिगर कर रहा है. वहीं नील्सन पोलिंग कंपनी के अनुसार कोरोनो वायरस महामारी जैसी स्थिति में घर पर रहने के दौरान लोग पहले से 60 प्रतिशत अधिक स्क्रीन पर समय बीता रहे हैं. अब लोग घरों में परस्पर बातचित करने के बजाय स्क्रीन के साथ ज्यादा सहज अनुभव कर रहे हैं. ये विज्ञान का अभिशाप है और इससे पूरी मानवता ग्रस्त है.

हमारे पास हर पैथी के डाक्टर हैं उन सभी का यही कहना है कि यदि खुद को स्क्रीन टाइम के हमले और प्रकोप से बचना है तो हमें प्रयास कर अपना स्क्रीन टाइम घटाना ही पडेगा क्योंकि  इसे कम करने की कोई वैक्सीन, कोई गोली, कोई आसव, कोई चूर्ण अभी तक नहीं बना है. सभी का कहना है कि यदि आप वर्क फ्रॉम होम करते हैं तो  आप काम के बीच में एक गैप तय रखें और उतनी देर कंप्यूटर और मोबाइल बंद कर लें. जो खामखां स्क्रीन के साथ रहते हैं या आन लाइन पढ़ाई करते हैं वे लोग स्रकीन पर ब्राइटनेस फुल न रखें. काम के दौरान बीच-बीच में आँखों को आराम देने के लिए एक्सरसाइज करें. इसके लिए किसी बिना दाढ़ी वाले योग शिक्षक से परामर्श कर लें. आंखों को बार-बार धोते रहें इससे आपको आराम मिलेगा. और यदि मुमकिन हो तो अपने वर्क टेबल पर ग्रीन प्लांट्स लगाकर रखें. आप कोशिश करें कि कंप्यूटर पर काम करने वाले चश्मे ले लें और उसे लगा कर ही काम करें.

ये तय है कि आप स्क्रीन से बच तो नहीं सकते इसलिए आप ए ेहतियात बरतने में ही भलाई है. हमारे एक स्थानीय चिकित्सा विशेषज्ञ अमेरिकन मस्कुलर डीजनरेशन फाउंडेशन की रिसर्च का हवाला दे रहे थे, इसके  अनुसार अगर हम रोजाना अँधेरे में 30 मिनट भी स्मार्टफोन की स्क्रीन पर काम करते है तो इससे हमारी आँखे शुष्क  होने लगती है. आँखे शुष्क  होने से रेटिना पर बुरा असर पड़ता है. लंबे समय तक यह रूटीन रखने से आँखों की रोशनी कम होने लगती है. 

आपको पता ही नहीं होगा कि बढ़े हुए स्क्रीन टाइम के कारण आपकी आँखों को कितनी बीमारियां हो गयी है, डाक्टर बताते हैं कि रात को सोने से पहले स्मार्टफोन का उपयोग करने से आँखों के रेटिना पर बुरा असर पड़ता है. इससे आँखों की रोशनी कमजोर हो सकती है. रात को ज्यादा देर तक मोबाइल या टेबलेट उपयोग  करने से इसकी रोशनी आँखों में लालामी की समस्या  पैदा कर सकती है. रात में सोने से पहले मोबाइल का उपयोग  करने से जिस्म में मेलाटोनिन हार्मोन का स्तर कम होने लगता है. इसके कारण नींद देर से आने की समस्या  हो सकती है.

देर रात तक मोबाइल का उपयोग  करने से दिमाग  तक संकेत  ले जाने वाली ऑप्टिक तंत्रिका पर बुरा असर पड़ता है. इससे ग्लूकोमा (काले मोतिया) की समस्या सकती है. मेलाटोनिन हार्मोन का लेवल कम होता है. इससे स्ट्रेस बढ़ सकता है.

 आँखों की फोक्सिंग मसल्स पर बुरा असर पड़ सकता है. इससे किसी भी चीज पर फॉक्स करने में बुरा असर पड़ सकता है. ब्रेन ट्यूमर का खतरा बढ़ सकता है. इससे मेमोरी कमजोर हो सकती है.

 नींद पूरी नहीं होती है. इससे दिनभर थकान हो सकती  है. इस विषय में बेहतर हो कि आप विशेषज्ञों सी विमर्श करें और अपने आपको स्क्रीन संक्रमण से बचाएं.


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