अलपन विवाद का सुप्रीम कोर्ट में जाना देशहित में है जरूरी
राज्यपालों की मनमानी नियुक्तियों पर सरकारिया कमीशन से रोक लगी और एक नियम सा बन गया कि बिना राज्य के मुख्यमंत्री के किसी को भी वहां राज्यपाल नहीं बनाया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट एक फैसला कर कह दिया कि बहुमत का फैसला राजभवन में नहीं विधानसभा में ही होगा. एक आयोग ने यह भी सिफारिश कर दी कि राज्यों में आईएएस आईपीएस की नियुक्ति या उन्हें राज्यों से केन्द्र में वापस बुलाने के पहले संबंधित व्यक्ति या राज्य सरकार से पूछना पड़ेगा. हालांकि इंदिराजी ने संशोधन कर यह सुनिश्चित कर दिया कि केन्द्र और राज्य में किसी केन्द्रीय सेवा के व्यक्ति की नियुक्ति को लेकर मतभेद हो तो केन्द्र की चलेगी. पर सहमति या सलाह की बात तो फिर भी बनी रह गई.
अब अलपन वंदोपाध्याय के मामले से एक नया चेप्टर खुला है. अलपन के मामले में ममता बनर्जी ने उनकी सेवा में तीन माह की वृद्धि करवाई थी ताकि राज्य की कोरोना की स्थिति को संभालने में उनकी मदद ली जा सके. अलपन की छवि काम के मामले में सबसे अच्छे लोगों की है.
केन्द्र सरकार ने मोदीजी की बैठक को लेकर प्रोटोकाल का पालन न करने से नाराज होकर बिना अलपन और ममता सरकार का मत जाने बगैर ही उन्हें केन्द्र में आकर हाजरी देने का आदेश जारी कर दिया. यह गुस्से और जल्दबाजी में उठाया गया कदम प्रतीत होता है. वह धैर्य रखती तो मत जानने की कानूनी औपचारिकता को पूरा करने के बाद भी तबादले का आदेश जारी कर सकती थी और अपना कानूनी पक्ष मजबूत रख सकती थी.
अलपन के तबादला आदेश जारी होने पर ममता बनर्जी का गुस्सा होना स्वाभाविक सा था. उन्होंने अलपन को वहां भेजने से इंकार कर दिया. और नहीं जाने दिया. यहां उनसे भी चूक तो हो गई. वे अलपन का इस्तीफा तत्काल करवा सकती थी. अपलन सेवा वृद्धि को वापस कर स्वयं भी इस्तीफा दे सकते थे.
ममता बनर्जी ने अलपन को इस्तीफा दिला कर अपना सलाहकार बना लिया है. ऐसा वह अपने पूरे कार्यकाल में तो जारी रख ही सकती है. इससे अलपन को होने वाली सुविधाओं और वेतन भत्ते की हानि एकतरह से खत्म सी हो जाएगी.
वहीं केन्द्र सरकार सेवा नियमों के तहत अपनी कार्यवाही की जिद पूरी करते हुए सेवानिव्ति के बाद के लाभों को रोक सकती है. जांच करवा सकती है.
तब अलपन के पास दो ही विकल्प बचेंगें कि वे जांच पूरी होने और केन्द्र केे फैसले का इंतजार करें या बड़ी अदालत में जाएं.
इस मामले में वामपंथी मीडिया अपने मोदी विरोधी राग को गाते हुए ममता की जीत बता रही है. जबकि ऐसा एकदम साफ नहीं हैं. फिर भी यह तो कहना ही पड़ेगा कि प्रधानमंत्री का पद किसाी भी राज्य के मुख्यमंत्री के पद से बड़ा है. जब कभी बड़े और छोटे के बीच विवाद होता है तो हार जीत तो बाद में होती है पर वाद विवाद के दौरान सहानुभूति की ज्यादा तालियों छोटे के पक्ष में ही बजती है. यही मोदीजी और ममता दीदी के बीच विवाद में हो रहा है.
जो पिक्चर चल रही है वह चलती रहे पर मेरा मानना है कि मामला सुप्रीम कोर्ट में जरूर जाए और व्यक्ति और राज्य की राय जानने की अहमित पर फैसला हो ही जाए. क्योंकि ऐसे विवाद बाद में भी उठेंगे. देश में ममताआओं, केजरीवालों और स्टालिनों की कमी नहीं है. जब राय लेना ऐसा आवश्यक है तो केन्द्र और राज्यों पर यह बाध्यता क्यों नहीं होनी चाहिये कि वे केन्द्रीय सेवाओं और राज्य सेवाओं के अफसरों की राय लेने के बाद ही तबादले करें. मनमाने तरीके से तबादले नहीं हों. फिर राय लेने की बात इन्हीं सेवाओं पर क्यों लागू हो, प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी के केंद्र और राज्यों के अधिकारियों की भी राय नई पदस्थापना के पलले ली जाए.
अफसरों और कर्मचारियों की यह राय लेने की परिपाटी प्रशासन में राजनीतिक हस्तक्षेप कम करेगी और पारदर्शिता आएगी जिससे भ्रष्टाचार भी कम होगा. ये लोग जब फैसलों के खिलाफ अदालतों में जाएंगे तो उनका पक्ष ज्यादा साफ और मजबूत रहेगा.