प्रातःस्मरणीया अहिल्या
वसन्त निरगुणे, भोपाल
जिस प्रकार नर्मदा के दर्शन मात्र से व्यक्ति पवित्र हो जाता है. उसी प्रकार अहिल्या का नाम लेते ही व्यक्ति को पुण्य लाभ हो जाता है. अहिल्या ने अपने जीव में इतना पुण्य कमाया कि वह स्वयं पुण्य की पवित्र मूर्ति बन गई. अहिल्याबाई ने होल्कर जीवन में सभी काम उसी निष्ठासे किये, चाहे बचपन हो, चाहे जवानी हो अथवा वृद्धावस्था तीनों में सत्यनिष्ठा का आचरण किया. महाराष्ट्र के एक मामूली किसान माणकोजी शिंदे और सुशीला की बेटी एक दिन होल्कर राजवंश की महारानी बनेगी. यह किसने सोचा था. होल्कर राज के संस्थापक मल्हारराव ने चोंडी गांव के शिव मंदिर में इस बालिका के पूजा भाव देखकर उसके भाग्य में महारानी बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया था.
एक दिन अहिल्या खंडेराव होल्कर की पत्नी बनकर 9 वर्ष की उम्र में इन्दौर के राजमहल में आ गई. होल्कर राजवंश की स्थापना करनेवाले मल्हारराव अपने ऊपर जितना विश्वास रखते थे, उससे कहीं अधिक अहिल्या की नैसर्गिक प्रतिभा पर भरोसा करते थे. क्योंकि जिस दिन से अहिल्या के पवित्र पांव राजवंश में पड़े उसी दिन से मालवा के सूबेदार मल्हारराव की दिन दूनी रात चैगुनी यशकीर्ति और धन संपदा उत्तर भारत में मराठों की शक्ति की छाया में आ चुके थे. उधर महाराष्ट्र में शिवाजी और पेशवा हर तरह से समर्थ हो गये थे. तब तक अहिल्या भी राजनीति का पाठ पढ़ चुकी थी. खंडेराव को भी सेनापति का भार मिल गया था.
अहिल्या को एक पुत्र मालेराव और एक पुत्री मुक्ता बाई प्राप्त हो गई थी. इस समय अहिल्या ने बहुत आघात और दुःख सहे, लेकिन इन आघातों और और दुखों ने अहिल्या को फौलाद बना दिया था. पहले युद्ध में पति, फिर जिनकी छत्रछाया में वह बड़ी हुई वह भगवान तुल्य ससुर भी चले गये. इसके बाद पुत्र-पुत्री दामाद और पुत्री के पुत्र को खोया. इतना सब होने पर भी अहिल्या ने अपना संस्कारी धैर्य नहीं खोया और सारे राजकाज के सूत्र अपने हाथ में लिये.
अहिल्या ने पुराण प्रसिद्ध नगरी महेश्वर को राजधानी बनाकर उसके भाग्य को ही बदल दिया. यहां से अहिल्या ने 30 वर्ष निरापद शासन किया. उनका यह सुशासन काल इतना शांतिपूर्ण और उन्नति का रहा कि इसी समय प्रजा एक अलौकिक सुख महसूस करने लगी थी. चारों ओर अहिल्या की जयजयकार हो रही थी. यहीं से ष्सादा जीवन, उच्च विचार अहिल्या के जीवन का उद्देश्य बना. उसने धर्म-कर्म, पूजा-पाठ, दान- दक्षिणा, ज्ञान-ध्यान के साथ देश के धार्मिक नदी तटों पर घाट, धर्मशाला, कुए, बावड़ी आदि का निर्माण और जिर्णोद्धार का कार्य नियमित चलाया. कहते हैं- अहिल्या के राज में निर्माण की टांकी कभी बंद नहीं होती थी. उन्होंने देश भर में मंदिर घाट आदि बनवाये. इनका वे स्वयं निरीक्षण करती थी. उनकी दृष्टि में न केवल निमाड़ और मालवा की भूमि और प्रजा थी, बल्कि उन्होंने पूरे देश को अघोषित कार्यक्षेत्र बना लिया था. इससे अहिल्या भारत के लोगों के दिलों पर भी राज करने लगी थी. इससे उसकी देश और राष्ट्र भक्ति भी प्रकट हुई. वह कितना व्यापक सोच रखती थी, इससे पता लग जाता है. अब अहिल्या केवल न अहिल्या रह गई थी. वह अब प्रातः स्मरणीय देवी और लोकमाता बन गई थी.
कुशल शासन, न्यायप्रियता और सुसंस्कारिता उनके जीवन की पहली शर्त थी. वे नर्मदा और शिव की अनन्य भक्त थी. साहित्य, कला कौशल और ज्ञान चर्चा में उनकी गहरी रूचि थी. अहिल्या घाट और महेश्वरी साड़ी इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं. भगवान शिव शंकर को उन्होंने अपना राज पाट सौंप दिया था. उनका मानना था कि- ‘‘मैं जो कुछ भी व्यक्ति गत और सत्ता के बल पर कर रही हूं, इसका जवाब मुझे एक दिन ईश्वर को देना होगा.’’