दिल्ली में केजरीवाल और केन्द्र के काम और संबंध चोर चोर मौसेरे भाई जैसे
दिल्ली सरकार को लेकर जो संशोधन किया गया है वह निश्चिम ही चिंताजनक है. यह मनोनीत गर्वनर को जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों से ज्यादा अधिकार देता है. लेकिन याद करिये आजादी के लिये चले होम रूल आदोलन में भी यही विषय था कि अंगे्रजों के मनोनीत गवर्नर जनरल को चुने हुए प्रतिनिधियों को ज्यादा अधिकार क्यों. आजादी के बाद जो संविधान बना उसमें केन्द्र के विषय ज्यादा और राज्यों के कम. उस पर समवर्ती सूची और. बची खुची कसर इस बात ने पूरी कर दी कि जो विषय सूचियों से बाहर रह गये हैं उन पर केन्द्र नियम बना सकेगा. संविधान में एक प्रावधान तो यहां तक है कि केन्द्र अपने आपात अधिकारों का उपयोग कर राज्यों के विषयों पर भी कानून बना सकता है.
आजादी के बाद राज्यों के राज्यपालों के अधिकारों को लेकर कई बार कहा जा चुका है कि उनके अधिकार तो राष्ट्रपति से भी ज्यादा हैं.
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं होने की आड़ में उपराज्यपाल को राज्यपालों से भी ज्यादा अधिकार मिल गये हैं. बिना उपराज्यपाल की सहमति से न प्रशासनिक कदम उठाये जा सकते हैं न विधायी.
इसके लिये केजरीवाल का मनमाना और अराजक बर्ताव काफी हद तक जिम्मेदार है जिसकी सजा दिल्ली की जनता और लोकतंत्र को भुगतनी पड़ रही है.
अब तक दिल्ली को पूर्ण राज्य की लड़ाई होती थी. भाजपा सहित सब राजनीतिक दलों के धोषणापत्रों में हर चुनाव में यही कहा गया. लेकिन मदनलाल खुराना ने सरकार चला ली, शीला दीक्षित ने सरकार चला ली क्योंकि उन्हें पता था कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं है. लेकिन केजरीवाल नहीं चला पा रहे हैं क्योंकि वे जानकर भी भूल जाते हैं कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है. वह पूर्ण राज्य की सीमा से भी आगे चल कर राजनीतिक और संवैधानिक मनमानियां करते हैं.
केन्द्र सरकार तो कर ही रही है.
कहा जाता है ताले चोरी से बचाव के लिये लगाये जाते हैं. वे साहूकारों के लिये लगाए जाते हैं. साहूकार ताला देख आगे निकल जाता है कि घर का मालिक अभी नहीं है. पर चोर? वह वहीं रूक जाता है और हर प्रकार की तरकीब भिड़ा कर चोरी कर लेता है.
संविधान के इस संघर्ष में केजरीवाल हो या केन्द्र सरकार दोनों की नीयत ठीक नहीं है. फिर भी आलोचना तो बनती है क्योंकि केन्द्र के ज्यादा बुद्धिमानी की अपेक्षा की जाती है जिसका परिचय उसने नहीं दिया.