देश को क्या सबक मिला बैंक हड़ताल से

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2021-03-16 09:39:59


देश को क्या सबक मिला बैंक हड़ताल से

देश को क्या सबक मिला बैंक हड़ताल से
राष्ट्रीयकृत बैंक जिन्हें हम सरकारी बैंक भी सुविधा के लिये कहते हैं उनके  कर्मचारियों की दो दिन की हड़ताल आज पूरी हो गई. इससे देश को लाखों करोड़ का घाटा हो गया इससे कौन डरता है? न बैंक प्रबंधन, न कर्मचारी और न सरकार. जनता को कामकाज में असर पड़ता है पर उसे भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उसने भी रास्ते तलाश लिये हैं. मीडिया और बुद्धिजीवियों की बहस भर नजर आती है जिसका आज किसी पर असर नहीं होता? तो फिर यह फिजूल सी लगने वाली कवायद क्यों?
पहले बैंकों का एक दूसरे में विलय कर उनकी संख्या  घटाने की कोशिश होती रही है ताकि बैंकों का प्रबंधकीय खर्च कम हो और बैंक अपने उपभोक्ताओं को बेहतर सेवाएं दे सकें. तब भी इसी प्रकार हड़तालें होती थी औेर विलीनीकरण भी चलता रहा जो करीब करीब पूरा सा हो गया है. सरकार ने अब उस राह को छोड़कर निजीकरण की बात शुरू कर दी है. इसका अब विरोध हो रहा है. सरकारी बैंकों और बीमा कंपनियों के कर्मचारी और अधिकारी इसे कर्मचारी के साथ देश विरोधी बता रहे हैं. लेकिन सरकारी बैंकों से परेशान न जनता उनके साथ नजर आती है न सरकार उनकी सुनती दिख रही है. क्योंकि उसे हर साल भारी रकम इन बैंकों को चलाने के लिये देनी पडती है. सरकारी बैंक भार सरकारी खजाने पर डालते हैं, जिसे जनता अपनी मेहनत की कमाई से टैक्स देकर भरती है. जबकि निजी बैंकों में जो जाते हैं वे बैंक की सेवाओं से तो संतुष्ट हैं हीं, उन्हें लगता है कि ये बैंक भी निजी हो जाएं तो उनकी गाढ़ी कमाई सरकारी बैंकों में नहीं लुटेगी और सरकार टैक्स का बौझ कर करने के बारे में भी सोच पाएगी.
तो क्या निजीकरण कर दिया जाए इस पर जवाब देना जरा कठिन हो जाता है. क्योंकि तब यह सोचना पड़ता है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया ही क्यों गया था?  इंदिरा गांधी ने जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया तो इसका जनता ने भारी स्वागत किया था और इसे एक क्रांतिकारी कदम बताया गया था. यह पूरी तरह से सफल भी रहा. राष्ट्रीयकरण से पहले हर साल दो चार बैंक डूबते थे और जनता की वहां जमा गाढ़ी कमाई भी डूब जाती थी. कोई सुनने वाला नहीं होता था. आज भी हर साल एक दो निजी बैंक अचानक डूबते नजर आने लगते हैं और सरकार दौड़भाग कर जमाकर्ताओं को राहत  दिलवाती है. इनमें कई निजी बैंक तो ऐसे होते हैं जिनके प्रबंधन और प्रगति के गीत गाते देश के अर्थशास्त्री थकते नहीं थे पर अचानक ऐसा कुछ सामने आ जाता है कि वे डूबने लगते हैं और सरकार को ग्राहकों को राहत देने के लिये आगे आना पड़ता है. यानि निजी बैंक आज भी डूब रहे हैं पर सरकार सरकारी बैंकों की मदद से जनता  को बचा लेती है. यदि ये नहीं होते या नहीं रहे तो जनता का भगवान मालिक वैसे ही बन जाएगा जैसे राष्ट्रीयकरण के पहले था. इसलिये निजीकरण का तर्क देश और जनता के लिहाज से ज्यादा वजनदार प्रतीत नहीं होता है.
पर कुप्रबंधन भी तो सरकारी बैंकों की बड़ी लाइलाज दिखने वाली बीमारी है. उनके खराब ऋण और उनके कारण बढ़ता एनपीए भी तो समस्या है इसका समाधान क्या है? सरकार इसके लिये प्रबंधन को दोषी बताती है पर क्या यह सच है?  जब कंपनी डूबती है तो उसके मालिकों या मेजर  शेयर होल्डरों को दोषी बताया जाता है. सरकार मालिक है तो इस खराब प्रबंधन के लिये क्या सरकार जिम्मेदार नहीं है. कभी कहा गया था कि प्रबंधन को ज्यादा आजादी देकर ठीक किया जाएगा पर अचानक सरकार ने राग बदल दिया और निजीकरण की तान छेड़ दी. लेकिन महात्मा गांधी के मापदंड पर निजीकरण का फैसला एकदम नहीं टिकता है. देश के गरीब व्यक्ति को क्या निजीकरण से लाभ होगा तो जवाब मिलता है लाभ नहीं बल्कि नुक्सान होगा. क्योंकि ये सरकारी बैंक ही हैं जो गरीबों के खाते खुलवाते हैं, कल्याण योजनाओं को लागू करवाने में आगे आते हैं, आसानी से शिक्षा ़ऋण देते हैं जिनके बारे में निजी बैंक सोचते तक नहीं हैं.
तो क्या निजीकरण इतना बुरा है तो कम से कम मेरा जवाब है जी नहीं. सरकार को सरकारी बैंकों की संख्या घटानी चाहिये. एक दो को राष्ट्रीय स्तर पर काम करें बाकी देश को चार छह क्षेत्रों में बांट कर हर क्षेत्र के लिये एक दो बैंकों को काम करने को कहा जाए. इससे प्रतिस्पर्धा बनी रहेगी और एकाधिकार नहीं आएगा.
एक चूहा दौड़ खत्म होगी. आबादी के हिसाब से बैंक अपनी शाखाएं खोलेंगे. प्रशासनिक खर्च कम होगा. प्रतिस्पर्धा ज्यादा रहेगी. दूसरा यह कि इनमें सरकार की  भागीदारी बनी रहे ताकि कल्याण कार्यो में बैंक प्रबंधन अड़ंगेबाजी नहीं कर सके. पर इतनी स्वायत्ता रहे कि किसे ऋण देना है किसे नहीं इसका फैसला वह कर सके.   प्रबंधन को पूरी स्वायत्ता रहे. बैंकों के लिये पर्याप्त लाभ कमाना अनिवार्य किया जाए.  बैंक कर्मचारी और अधिकारियों पर वे ही सेवाशर्ते लागू हों जो निजी बैंकों में रहती है. हां सरकार सीमित वीटो अधिकार भर रखे. ताकि राष्ट्रीयकरण के जो पवित्र  उद्देश्य थे वे पूरे  किये जा सकें और जो विकृतियां आ गई हैं उन्हें दूर किया जा सके.

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