बिगड़े बोल पर नियंत्रण की जवाबदारी सबकी है
- राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार भोपाल
इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है. राजनीति, समाज और सोशल मीडिया पर जिस तरह की भाषा-बोली का प्रयोग हो रहा है, उससे देश में भाषा और बोली के भविष्य को लेकर बहुत चिंता होने लगी है. ऐसी-ऐसी बयानबाजी से होने लगी है, जो कल्पना से परे है. जैसे त्रिपुरा के मुख्यमंत्री का बयान हो या फिर महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष की चेतावनी. महाराष्ट्र से जो बिगडे बोल आए हैं, उसमें एक पार्टी की हताशा साफ-साफ दिख रही है. पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर चूंकि फिल्मी सितारे चुप हैं इसलिए उनकी फिल्मों की शूटिंग व प्रदर्शन रोकने की धमकी दे दी गई. यह सही है व्यक्ति कभी सत्ता या शक्ति के अहंकार में मर्यादाएं भूल जाता है और कभी विफलता से उपजी हताशा में. पहले समाज में अर्थात अखबारों में संपादक के नाम पत्र में गिनी-चुनी प्रतिक्रियाएं संपादित होकर छपती थीं. अब सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में क्रांति ही कर दी है. अब न जगह सीमित है, न शुद्धता-साफगोई जरूरी है. विषय ज्ञान के बिना भी टिप्पणी होती हैं.
आज जो नई किस्म की अभिव्यक्ति के माध्यम हैं, उनका खूब दुरुपयोग भी हो रहा है. ऐसे दुरुपयोग से जो समाज बन रहा है, उसमें राजनेताओं के बिगड़े बोल रुलाने लगे हैं. किसको, कब, कहां और क्या बोलना है, इसका ध्यान हमारे कितने नेताओं को है? हालांकि, नेताओं के बोल या आचरण में अचानक बदलाव नहीं हुआ है. पिछले दशकों में इसके लिए धीरे-धीरे माहौल बना है. पहले बिगड़े बोल को नजरंदाज कर दिया जाता था, पार्टी या समाज के स्तर पर ही धिक्कारा जाता था, लेकिन अब वह काम बंद हो गया है. बल्कि इसका अनुसरण होता है.
इसका बड़ा कारण यह है कि देश की राजनीति बदल गई है. देश में सत्ता परिवर्तन भी हुआ, लेकिन सत्ता से बाहर होने वाली पार्टियों के लिए भी जगह होती थी. नेताओं में खुद को एडजस्ट या समायोजित करने की प्रवृत्ति थी. सत्ता में परिवर्तन होता था, लेकिन राजनीतिक संस्कृति में नहीं.
अब सत्ता से जाने के बाद कुंठा ने जन्म लेना शुरू कर दिया है. अंधकार दिख रहा है. बहुत सामान्य व्यक्ति भी अपने को आहत महसूस कर रहा है. देश की राजनीति में अगर जनसंघ को छोड़ दें, तो बाकी सारी पार्टियां या तो कांग्रेस से निकली हैं या कांग्रेस से प्रभावित रही हैं. जनसंघ को खुले रूप से हिन्दू पार्टी रही है, जबकि बाकी पार्टियों की राजनीति 25 प्रतिशत आबादी पर केंद्रित रही है. इसका असर यह हुआ कि 75 प्रतिशत लोग उपेक्षित महसूस करने लगे. धीरे-धीरे 25 प्रतिशत आबादी का भी मोहभंग हुआ. गरीब-शोषित लोग भी कांग्रेस से अलग हुए. बाद में क्षेत्रीय पार्टियों से भी उनका मोहभंग हुआ और वे भी समझ गए कि क्षेत्रीय पार्टियों के जरिए केंद्र में अधिकार नहीं मांगा जा सकता.
देश में पहली बार ऐसा हुआ कि एक दक्षिणपंथी पार्टी, जिसमें समाजवाद नारे के रूप में भी नहीं था, उसने चुपचाप कांग्रेस, वाम और समाजवादियों के नारे को अपना लिया. सारी पार्टियां गरीबों के उत्थान के लिए नक्शा बनाती थीं, लेकिन उस पर अमल नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में शुरू हुआ. आर्किटेक्ट दूसरी पार्टियां हैं और बिल्डर नरेंद्र मोदी. जैसे, इंदिरा गांधी ने गरीबों को लाभ देने के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, लेकिन बडे पैमाने पर खाते अब जाकर खुले. देश का आम गरीब रसोई गैस लाने और घर में शौचालय बनाने के बारे में सोच भी नहीं पाता था. इसीलिए जमीनी बदलाव हुआ, पर सबको अर्थात भाजपा समेत सारी पार्टियों को अहंकार से बचना चाहिए, वहीं विपक्ष को भी हताशा से निकलने के प्रयास करने चाहिए. यह हताशा ही है कि किसी की मौत के नारे भी लगे हैं. विरोध अपनी जगह है, लेकिन ऐसी दुर्भावना का प्रदर्शन शर्मनाक है. यह जिम्मेदारी सबकी है किसी एक की बात से इसे जोड़ना सही नहीं होगा.