मोदीजी के नये एफडीआई पर ज्यादा चर्चा क्यों नहीं?

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2021-02-11 23:04:31


मोदीजी के नये एफडीआई पर ज्यादा चर्चा क्यों नहीं?

मोदीजी के नये एफडीआई पर ज्यादा चर्चा क्यों नहीं?
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान किसान आंदोलन पर ज्यादा ध्यान केन्द्रित किया था और उसमें आये दो शब्दों में से एक शब्द था आंदोलनजीवी और दूसरा था एफडीआई जिसकी नयी व्याख्या पर जितना ध्यान जाना था वह नहीं गया.  ऐसा क्यों हुआ यह विचारणीय है. वित्तीय शब्दावली के शब्द एफडीआई यानि डायरेक्ट फारेन इन्वेस्टमेंट का उपयोग खूब होता है पर अपने भाषण में मोदीजी ने एफडीआई की व्याख्या की फारेन डिस्ट्रक्टिव आडियालाॅजी. एफडीआई, जो सीधा विदेशी मुद्रा निवेश था और जो कंपनियों में लग रहा है. पर मोदीजी का एफडीआई  का नया रूप था विदेशी विध्वंसक विचारधारा. किसान आंदोलन में विदेशी पैसा लग रहा है. कुछ ज्ञात और  ईमारदारी वाला है तो और कुछ अज्ञात और संदिग्ध माध्यमों व स्त्रोतों से आ रहा है जिसका संज्ञान लेते हुए ईडी द्वारा कई किसान नेताओं और संस्थाओं को नोटिस जारी किये जा चुके हैं. पर विदेशी विध्वंसक विचारधारा का क्या?
मोदीजी का इशारा था कि विदेशों में बैठे कुछ लोग नापाक इरादों से किसान आंदोलन को वैचारिक आधार दे रहे हैं. देश विरोधी विचारधारा और लोगों को विदेशों से किसान आंदोलन को पुख्ता करने के लिये शब्द और विचार दे रहे हैं. उन  शब्दों और विचारों को सोशल मीडिया के माध्यम से विदेशों से फैलाया जा रहा है. जो देश में बैठे विध्वसंक शब्द और विचार सृजक हैं उनके शब्दों और विचारों को भी विदेशी सहयोग से सोशल मीडिया के माध्यम से फैलाया जा रहा है.
मोदीजी की इस बात को संबंधित हल्कों में देखा और सराहा तो गया. विरोधियों ने आलोचना भी की पर समर्थन हो या विरोध उसके स्वर ज्यादा तेजी नहीं  पकड़ पाये यही विचारणीय है.
इसका कारण है कि हिंदुस्तान की सनातन विचारधारा सर्वग्राही रही है और वह हजारों साल से विदेशियों से आए धार्मिक और सांस्कृतिक विचारों को आत्मसात कर  रहे हैं. करीब हजार साल से ही ऐसे विचार आये हैं जिन्हें प्रयासों  के बाद भी आत्मसात नहीं किया जा सका क्योंकि इन्हें अलग रखने और पहचान देने का प्रयास सत्ता संस्थान का रहा और वे सनातन विचारों के विरोध में न सिर्फ खड़े रहे बल्कि सनातन विचारों को खत्म करने के मंसूबे भी बांधे रहे और कुछ हद तक कामयाब रहे.
आजादी के बाद भी यह क्रम थमा नहीं. अंग्रेजी भाषा और अंगे्रजों के सांस्कृतिक मूल्य आधुनिकता का पर्याय बन समाज में फैलाव पाते गये. अंग्रेजों के जाने के बाद मुगल शासकों के जो अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को विस्तार देने की नीति और परंपरा जो अंग्रेजी पराधीन शासन में मंद पड़ गई थी वह भी अपेक्षाकृत ज्यादा तेजी से बढ़ी. पंडित नेहरू के सोवियत संघ के प्रति झुकाव ने साम्यवादी मूल्यों और  संस्कृति को भी जगह दिलाई. कम्युनिस्टों को चीन का भी इसी प्रकार का राजनीतिक समर्थन मिला. इन सबके आलोक में देखें तो हम विदेशी विचारों और मूल्यों के आदी से हो गये थे. यह सब एकतरह से स्वदेश्ज्ञी और व्यवहारिक सा हो गया था. पर किसान आंदोलन के संदर्भ में जब मोदीजी ने विदेशी विचारों और प्रचार पर हमला किया तो तिलमिलाहट तो हुई पर वैसी नहीं जैसी आंदोलनजीवी पर देखी गई. इसके बाद भी एफडीआई की नयी व्याख्या पर काम करने की जरूरत खत्म नहीं हो जाती है. समय रहते इस पर भी काम किया जाना चाहिये ऐसी अपेक्षा तो की ही जा सकती है और की जानी चाहिये.  

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