मोदीजी का ब्रम्हात्र आंदोलनजीवी

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2021-02-09 10:22:58


मोदीजी का ब्रम्हात्र आंदोलनजीवी

मोदीजी का ब्रम्हात्र आंदोलनजीवी
आंदोलनजीवी कह कर मोदीजी ने ऐसा ब्रम्हात्र जैसा तीर चलाया है जो कल्पना  के परे था और सही स्थान पर लगा है. लेकिन ऐसा कहने के साथ यह भी जोड़ना होगा, शर्ते लागू. तभी बात बनेगी अन्यथा जो लोग संदर्भ काट कर इस शब्द पर घमासान कर रहे हैं उनकी नापाक मंशा पूरी हो जाएगी. शर्त यही है कि इसे कभी शाहीनबाग तो कभी किसान आंदोलन तो कभी अलग अलग तरह से विभिन्न आंदोलनों में नजर आने वाले चेहरों से जोड़ कर देखा जाए. ये चेहरे मुखौटा लगाकर हर आंदोलन में नजर आते हैं. उनका इरादा उस आंदोलन के पवित्र लक्ष्यों को पूरा करना कदापि नहीं होता बल्कि मोदी का राजनीतिक विरोध होता है. वे उस आंदोलन पर परदे के पीछे से कब्जा कर लेते हैं और उसे अनंतकाल तक खींचने की कुचेष्टा करते हैं. इससे उस आंदोलन को क्षति पहुंचती है. जब आंदोलन शाहीनबाग और किसान आंदोलन की तरह काल्पनिक नुकसानों पर टिका हो तो राष्ट्रीय हितों के खिलाफ चला जाता है. किसान आंदोलन को ही लें उसमें एमएसपी और मंडियों के धीरे धीरे खत्म होने, किसानों की जमीन कारपोरेट्स द्वारा हड़पजाने की बात कह कर तीनों कानूनों को वापस लेने की जिद पर टिका दिया है. ये तो सिर्फ उदाहरण के लिये झलक दी है बाकी पक्ष विपक्ष की कहानी तो दसियों बार दोहराई जा चुकी है. आंदोलन के खत्म होने की जैसे ही उम्मीद बनती है ये आंदोलनजीवी उसमें फांस फंसाकर उसे खत्म नहीं होने देते.
अब संदर्भ से काटकर देखें तो आंदोलन तो मूल अधिकार है बशर्ते शांतिपूर्ण हो और मूल आंदोलनकारियों के हाथ में उसकी कमान रहे, परदे के पीछे से उसे संचालित नहीं यिा जा सके. मुझे एक जानेमाने कर्मचारी आंदोलन के नेता का कथन याद है वे निजी बातचीत में कहते थे आंदोलन करो, हड़ताल करो और जब कुछ मांगे मान ली जाएं तों उसे खत्म कर दो. इसी में कर्मचारियों का भला है. वे यह भी जोड़ते थे खत्म करने के साथ ही अगले आंदोलन की तैयारी शुरू कर दो. बची मांगों में दो चार नई मांगे जोड़ दो और शुरू हो जाओ. यह क्रम सतत चलाओ. इसी मेें कर्मचारियों का भला है. आंदोलन करते है तो कर्मचारियों के खिलाफ की गई सारी कार्यवाही तो वैसे ही खत्म हो जाती है क्योंकि यह भी तो एक प्रमुख शर्त होती है. कर्मचारियों को दोहरा फायदा होता है. कुछ खोना भी नहीं पड़ता और कुछ हाथ भी लग जाता है इससे कर्मचारी वर्ग कर्मचारी आंदोलन के नेताओं का मुरीद भी हो जाता है.
पर कम्युनिस्ट और पुराने खांटी समाजवादी ऐसा नहीं करते. उनकी दिली इच्छा रहती है कि कुछ निलंबन हों, और कुछ बर्खास्तगी. ये लोग यूनियन पर निर्भर हो जाते हैं इससे यूनियन और आंदोलन के नेतेाओं को ताकत मिलती है.
अब बात फिर आंदोलनजीवी की. संदर्भ से हटकर कहें तो आंदोलन तो लोकतंत्र की जान है. उनके बगैर लोकतंत्र जिंदा ही नहीं रह सकता. इसलिये आंदोलन तो जरूर होना चाहिये पर ईमानदारी के साथ. राजनीतिक दल आंदोलन करें. ये अलग बात है उसका कोई विरोध नहीं है. बाकी संगठन भी आंदोलन करें पर आंदोलनजीवियों से दूरी बनाकर रखी जाए यह भी आंदोलन की पवित्रता के लिये जरूरी है. 

Contact:
Editor
ओमप्रकाश गौड़ (वरिष्ठ पत्रकार)
Mobile: +91 9926453700
Whatsapp: +91 7999619895
Email:gaur.omprakash@gmail.com
प्रकाशन
Latest Videos
जम्मू कश्मीर में भाजपा की वापसी

बातचीत अभी बाकी है कांग्रेस और प्रशांत किशोर की, अभी इंटरवल है, फिल्म अभी बाकी है.

Search
Recent News
Leave a Comment: