त्रिपुरा के मतदाता ने भरी हुंकार, संकेत भाजपा के पक्ष में, फैसला 2 मार्च को 17 फरवरी 2023

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2023-02-16 22:14:47


त्रिपुरा के मतदाता ने भरी  हुंकार, संकेत  भाजपा के पक्ष में, फैसला 2 मार्च को  17 फरवरी 2023

त्रिपुरा के मतदाता ने भरी  हुंकार, संकेत  भाजपा के पक्ष में, फैसला 2 मार्च को  17 फरवरी 2023
त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने इतनी  जबर्दस्त हुंकार  भरी है कि सारे देश के लिये  एक  माॅडल बन  गई है. यहां  16 मार्च को  हुए  मतदान  में 80 प्रतिशत से  ज्यादा  मतदान  हुआ.  यह 90   तक  भी जा  सकता है. संभावना भाजपा की वापसी की ही ज्यादा है. पर एक संभावना त्रिशंकु विधानसभा की भी दिख रही है पर उसमें  भी भाजपा  का पलड़ा  इतना भारी दिख रहा  है कि पूर्ण  बहुमत न  सही,  पर विपक्ष की सरकार  तो नहीं दिख रही है. हां हर कीमत पर  भाजपा  के  खिलाफ जाने वाले कहीं दोस्त कहीं  दुश्मन का खेल खेल रही कांग्रेस और माकपा के  गठबंधन की सरकार  का सपना देख रहे हैं. कुछ  लोग  त्रिपुरा की क्षेत्रीय पार्टी टीपरा मुथा के साथ है  जो  पासंग की बिल्लियों की लड़ाई में बंदर के  हाथ रोटी की तरह मुख्यमंत्री का पद देख रहे हैं. होगा क्या  यह तो  2 मार्च को मतगणना  के बाद  ही पता चल पाएगा.  
चलिये अब सारे खेल के अंदर झांकने की कोशिश करते हैं.
पिछले  विधानसभा चुनाव में भाजपा ने  लंबे समय से  त्रिपुरा में राज कर  रही माकपा  की माणिक सरकार   को  उखाड़ फैंका था  और  विप्लवदेव   की अगुआई मेें  सरकार बनाई  थी.  हालांकि इसमें सच्चाई यह भी थी कि जीती भले ही भाजपा हो, पर वोट  माकपा  को उससे एक प्रतिशत  ज्यादा  मिले थे.  राजनीति के पंडित कहते हैं  कि उस  जनता  ने उस समय माकपा  को नहीं कांग्रेस को  हराया था.  कांग्रेस प्रमुख विपक्षी दल थी पर वह माकपा  के अत्याचारों से  मुक्ति नहीं   दिला पा रही थी इसलिये  जनता ने  यह काम  भाजपा  को  सौंपा था. भाजपा  ने  यह चमत्कार  कर  बताया.
भाजपा  ने  विप्लवदेव  की अगुआई  में सरकार   बनाई और  काम  भी अच्छे  किये,  विकास  भी हुआ  पर लोकप्रियता के पैमाने पर  विफल रहे.  क्षेत्रीय  भावनाओं को  पकड़ नहीं पाए. नतीजन भाजपा ने  कांग्रेस  से आये  लोकप्रिय  नेता मानिक शाह को साल भर पहले मुख्यमंत्री  बनवा दिया.   चिकित्सक रहे मानिक की छवि  लोकप्रिय  नेता  की है. इससे माहौल में बदलाव  का  असर दिखा. फिर नगरनिगम  से  लेकर  संसद  का  चुनाव तक  समान  ताकत से लड़ने  वाली भाजपा  ने  इस छोटे से दो सांसदों    और  60 सीटों वाली विधानसभा के चुनाव में  भी कोई कमी  नहीं  छोड़ी.  कमान  अमित शाह के हाथ  में थी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से  लेकर  हर कार्यकर्ता ने दिनरात पसीना  बहाया. यहां  भी भाजपा ने एक  खेल बता   दिया   कि मानिक शाह  को मुख्यमंत्री का  चेहरा घोषित नहीं किया. इसे जनता  और  माणिक   शाह कुछ  भी समझे  पर  चुनाव बाद  की एक  चाल तो  भाजपा  ने आगे बढ़ा ही दी है. जानकार  इसका कारण  बताते  हें कि माणिक शाह की छवि नरम नेता की है. इसी कारण कांग्रेस प्रमुख  विपक्षी दल  होते हुए  भी माकपा  को टक्कर  नहीं  दे पा रही थी.  जो लोग माकपा  से  नाराज हैं उन्हें लुभाने  के  लिये भाजपा  ने  यह खेल किया है  ताकि वे उनकी पुरानी कमजोरी के चलते  छिटक  न  जाएं.
केरल में खून खच्चर  में फंसी कांग्रेस और  माकपा  यहां त्रिपुरा में दोस्ती के गठबंधन  में हैं. विश्लेषक कहते हैं कि गणित के  हिसाब से तो  गठबंधान  में  दम है पर केमेस्ट्री कितनी मजबूत है यह भी तो देखना और सोचना  होगा.  जमीन  पर दोनों के  कार्यकर्ता   और  नेता एक  दूसरे का  कितना साथ दे पाते  हैं क्योेंकि  इसके पहले  तो  वे  भी एक  दूसरे  के  खून  के प्यासे  ही थे.  फिर   यह भी कहा जा रहा है कि माकपा   का तो  केडर है वह आदेश करके कांग्रेस के  पक्ष में वोट  ट्रांसफर करवा सकती है पर कांग्रेस  के   साथ ऐसी स्थिति नहीं  है. उसे तो  उसके ही नेता  और  कार्यकर्ता वोट  डालने  में आगे पीछे होते  रहते  हैं फिर  वह क्या वोट ट्रांसफर  करवाएगी.
फिर तीसरी अहम  पार्टी टीपरा  मोथा है जो ताकतवर  पार्टी  है. इसके  सुप्रीमों यहां कभी राजा रहे के उत्तराधिकारी प्रत्युत्देवबर्मन हैं. करीब 20  आदिवासी सीटों  पर यह  पार्टी खासी मजबूत  है और बाकी सीटों  के  आदिवासी मतदाताओं पर उसका असर  है.  हालांकि  वह भाजपा  के साथ  रही है  पर उसकी मांग त्रिपुरा  का विभाजन  कर कुछ और  इलाकों  को  जोड़कर अलग राज्य  बनाने  की है  ताकि यहां के  आदिवासियों  के  हित  ज्यादा  सुरक्षित हो सके. पर भाजपा  इस  मांग  पर कभी सहमत नहीं हो सकी है जब  यह भाजपा  के  साथ  थी तो मांग  को  उसने  ठंडे बस्ते में  डाल दिया था पर  चुनाव  आते  ही भाजपा  से  अलग  होकर मांग पर अड़ गई.  सारे  प्रयासों  के  बाद  भी कांग्रेस   और माकपा के  साथ गठबंधन  में  नहीं  जा  पाई.  भाजपा  के साथ भी बात करती रही. यहां तक झुक गई  कि बस  भाजपा  उसकी मांग  के समर्थन में   लिखित  में आश्वासन  दे दे वह साथ आ जाएगी पर बात बनी नहीं क्योंकि भाजपा शुरू  से ही छोटे राज्यों के खिलाफ  है.
वैसे अभी भी कहा  जा  रहा है   कि  त्रिशंकु विधानसभा बनी तो  उसका जोर भाजपा के  साथ  जाने  पर ही रहेगा. वैसे उसे  उस  स्थिति में माकपा  कांग्रेस गठबंधन  से भी परहेज नहीं रहेगा बशर्ते  अच्छी डील मिल जाए.
चुनाव  की नजर से  देखें तो उसने भाजपा और माकपा कांग्रेस  गठबंधन  दोनों को  चोट पहुंचाई है. क्योंकि कहीं वह भाजपा को टक्कर  दे  रही है तो  कहीं कांग्रेस माकपा  गठबंधन  को. ऐसी स्थिति में वह वोट  कटवा  पार्टी  ही ज्यादा प्रतीत हो रही है.  वह दस  सीटें  भी जीत ले  तो  जानकार  बड़ी बात बता  रहे हैं.  उनका  कहना है कि त्रिशंकु  विधानसभा की स्थिति मेें ऐसी स्थिति बनने  से  इंकार नहीं  किया जा सकता कि गठबंधन  उसे  मुख्यमंत्री की कुर्सी  सौंपने  को  राजी हो जाए  ताकि भाजपा को रोका  जा  सके.  यह प्रयोग कर्नाटक  और  महाराष्ट्र में हो  चुका  है.
सारे विश्लेषण के बाद भी यह तो कहना पड़ेगा ही कि  होगा  क्या यह तो मतगणना  के  दिन  2 मार्च  को ही पता चलेगा.  तब  तक सोचते  विचारते रहिये.
-  ओमप्रकाश  गौड़ वरिष्ठ  पत्रकार भोपाल मो. 9926453700     

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