एक दस्तावेज, जिसे सबको पढ़ना चाहिए 16 अगस्त राकेश दुबे, वरिष्ठ पत्रकार भोपाल
भारत सरकार का बजट और 2018 में प्रकाशित नीति आयोग रिपोर्ट के आँकड़े मेल नहीं खा रहे हैं. नीति आयोग की वही रिपोर्ट जिसका शीर्षक था इंडिया/75. इस रिपोर्ट में सरकार ने अपने लिए कुछ लक्ष्य तय किए थे, जिन्हें 2022 तक पूरा किया जाना था. 230 पन्नों के दस्तावेज रिपोर्ट, की शुरुआत प्रधानमंत्री इस टिप्पणी से हुई थी “2022 तक नए भारत के निर्माण के में लोगों की अपेक्षाओं में केंद्र सरकार एक सक्रिय भागीदार है. टीम इंडिया की भावना से, आइए अब हम रणनीति में उल्लेखित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपनी ऊर्जाओं को संयोजित करें।”
इस दस्तावेज में नीति आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष ने लिखा था कि “पिछले चार वर्षों में परिवर्तन का निर्माण हो रहा है. अर्थव्यवस्था आखिरकार अतीत की नकारात्मक विरासतों, खासतौर से बेतहाशा और बिना किसी फिक्र के कर्ज के विस्तार से बाहर निकल रही है.” सरकार ने जो लक्ष्य खुद निर्धारित किए उनका सिंहावलोकन बताता है कहीं कुछ गम्भीर चूक हो रही है.
पहला लक्ष्य जीडीपी विकास दर में सुधार करना था. दस्तावेज में कहा गया है कि यह ‘2017-18 में निवेश की दर (सकल स्थिर पूंजी निर्माण) को 2017-18 के लगभग 29 प्रतिशत से बढ़ाकर 2022-23 तक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 36 प्रतिशत कर देगा‘ और ऐसा करने के लिए ‘निजी और सार्वजनिक निवेश दोनों को बढ़ावा देने के लिए कई उपायों की आवश्यकता होगी‘. नतीजा क्या निकला? विश्व बैंक ने जो ताजा आंकड़े दिए हैं उसके मुताबिक 2021 में यह दर 29 प्रतिशत है जिसका अर्थ है कि कोई बदलाव नहीं हुआ. 2014 में ही यह 30 प्रतिशत था, इसलिए एक तरह से इसमें गिरावट ही आई.
सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी वृद्धि में गिरावट की शुरुआत 2018 में हुई और मार्च 2020 तक समाप्त होने वाली लगातार नौ तिमाहियों और कोविड की शुरुआत में गिरावट ही होती रही. निस्संदेह इस दस्तावेज के लेखकों को उस समय इसकी जानकारी नहीं थी. इस दस्तावेज में वे आगे कहते हैं कि भारत का टैक्स-जीडीपी अनुपात लगभग 17 प्रतिशत है जो कि ओईसीडी देशों (35 प्रतिशत) के औसत के मुकाबले आधा है. ब्राजील (34 प्रतिशत), दक्षिण अफ्रीका (27 प्रतिशत) और चीन (22 प्रतिशत) जैसी अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भी काफी कम है. सार्वजनिक निवेश यानी सरकारी निवेश को बढ़ाने के लिए, भारत को 2022 तक अपने कर-जीडीपी अनुपात को जीडीपी के कम से कम 22 प्रतिशत तक बढ़ाने का लक्ष्य रखना चाहिए.
नतीजा क्या निकला? कुल टैक्स-जीडीपी अनुपात पिछले साल 17 प्रतिशत था, यानी इसमें कोई बदलाव नहीं आया. इसका एक कारण यह है कि 2019 में कार्पोरेट टैक्स में कटौती की गई थी.
इस विकास की रणनीति के लिए सरकार ने एक और मुद्दा रखा था और वह था रोजगार संकट को खत्म करना. यह बता देना जरूरी है कि 2018 में बेरोजगारी दर रिकॉर्ड 6 प्रतिशत पर पहुंच गई थी, और यह आंकड़े सरकारी सर्वे के हैं और तब से वही हैं. 2017 के बाद से हर साल कृषि क्षेत्र में लोगों की आमद बढ़ती ही रही है.
दस्तावेज में इसके बाद मैन्यूफैक्चरिंग की बात की गई है और कहा गया है कि मोदी सरकार “मैन्यफैक्चरिंग सेक्टर की विकास दर को 2022 तक दोगुना करने का इरादा रखती है.” लेकिन 2018 में मैन्यूफैक्चरिंग विकास दर 16 प्रतिशत रही थी और आज यह 14 प्रतिशत है. यह विकास दर सिर्फ बढ़ी ही नहीं, बल्कि पहले के मुकाबले कम हो गई। इसके बाद किसानों की आमदनी दोगुना करने का लक्ष्य था, लेकिन इस बारे में सब जानते हैं कि किसानों की जो राय है और उन्होंने उसे अपने सफल आंदोलन के जरिए भी स्पष्ट कर दिया था.
वित्तीय समावेश का अर्थ बैंक में खाता खोलना, जनधन खाते को आधार और मोबाइल से लिंक करना आदि है, और इस मोर्चे पर ठीकठाक प्रगति भी हुई और इसे मानना भी चाहिए. इसी दस्तावेज में एक जगह कहा गया है कि, “भारत आने वाले अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की साझेदारी को 1.18 प्रतिशत से बढ़ाकर 3 प्रतिशत करना है.” ऐसा भी नहीं हो सका. होना तो ऐसा था कि अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की संख्या 88 लाख से बढ़कर 1.2 करोड़ होनी थी. ऐसा नहीं हो सका और कुछ हद तक इसका कारण कोविड महामारी हो सकती है.
दस्तावेज में तमाम तरह की बातें कही गई थीं, चूंकि 2022 आकर जा चुका है तो हम नतीजे देख सकते हैं. इस दस्तावेज के बारे में इन दिनों कहीं कोई चर्चा नहीं है. इसमें से अधिकतर जो जानकारियां और आंकड़े हैं वह सरकार के ही हैं. समय-समय पर होने वाले लेबर फोर्स सर्वे (श्रम बल सर्वेक्षण) में बताया गया है कि पहले के मुकाबले अधिक लोग आधुनिक अर्थव्यवस्था छोड़कर कृषि क्षेत्र में चले गए हैं. निवेश की दर, पर्यटकों की आमद और जीडीपी ग्रोथ की दर के साथ ही टैक्ट-जीडीपी अनुपात के आंकड़े आदि सब सरकार के ही हैं. इस बात पर हैरानी है कि सरकार जो वादा करती है और पूरा नहीं करती है, तो उसके लिए जिम्मेदारी तो लेना चाहिए. दरअसल सरकार को भारत की कठिन समस्याओं को हल करने का कोई तरीका आता ही नहीं है और यदि हम नीति आयोग की ‘रणनीति‘ पर विचार करें और देखें कि इससे क्या नतीजा निकला?