दोनों को समझना होगा ये मुद्दे छोटे नहीं हैं 15 फरवरी
-राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार भोपाल
संसद के भीतर और संसद के बाहर देश में दो विषय चर्चा में हैं, और ये दोनों उतने छोटे नहीं है, जितना देश के पक्ष प्रतिपक्ष समझे हुए है. न तो उत्तर देने वाली सरकार गम्भीर है और न मुद्दे उठाने वाला प्रतिपक्ष ही, परिणाम भुगतना आप हम जैसे नागरिकों को होगा. पहला विषय - अड़ानी समूह, केंद्र सरकार संसदीय संव्यवहार है तो दूसरा - हाल ही में हुई एक राज्यपाल की नियुक्ति है.
संसद से बाहर अडानी समूह के चेयरमैन गौतम अडाणी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी की ओर से उन्हें फायदा पहुंचाने के आरोपों पर बात की. अडानी ने कहा, ‘इस तरह के आरोप निराधार हैं...सच्चाई यह है कि मेरी व्यावसायिक सफलता किसी भी नेता की वजह से नहीं है.’ कुछ दिन पहले भी अडाणी ने कहा था, ‘...मैं आपसे यही कहना चाहूंगा कि आप उनसे (मोदी से) कोई व्यक्तिगत फायदा ले ही नहीं सकते. आप उनसे (मोदी से) नीतियों पर बात कर सकते हैं, देशहित पर चर्चा कर सकते हैं लेकिन जो नीति बनती है, वह सबके लिए होती है, अकेले अडाणी समूह के लिए नहीं.’
अब दृश्य बदलता है तब जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने संसद में अपने संबोधन के दौरान ‘क्रोनिइज्म’ का मुद्दा उठाया - उनकी टिप्पणियों को सदन की कार्यवाही से हटा दिया गया. इसके बावजूद सारी बातें मीडिया पर अक्षरशरू उभर रही है, उनके दुबारा प्रस्तुति की अपील भी हो रही है. राहुल गांधी ने अपने भाषण में सदन का ध्यान इस ओर खींचा कि कैसे सरकार ने अडाणी को फायदा पहुंचाया, इस दौरान सत्ता पक्ष लगातार टोका-टाकी करता रहा और मांग की कि वह ‘कागजी सबूत’ दें. अब कार्यवाही से निकाले जाने के बाद जो हो रहा है, वो क्या संसदीय अवमानना के आसपास नहीं है? देश की संसदीय प्रणाली में और भी कई प्रावधान है, जिनमें विषय उठ सकता है. विषय की सम्पूर्ण जानकारी पाना देश का अधिकार है. प्रतिपक्ष के अगंभीर प्रयास और सरकार का जवाबदेही से बचना दोनों ही प्रजातंत्र में गम्भीर बात है.
अडाणी समूह की आसमानी सफलता को लेकर जो दावे-प्रतिदावे, आरोपों-प्रत्यारोपों और खंडन वगैरह किए जा रहे हैं, उन्हें समझने के लिए कुछ बातें संक्षेप में दोहरानी होंगी. आज आपको पब्लिक डोमेन में ऐसी तमाम चीजें मिल जाएंगी जो इन आरोपों की पुष्टि करती दिखती हैं और अडाणी के उन दावों को गलत ठहराती हैं जिसमें कहा जा रहा है कि सरकार ने उन्हें अलग से कोई फायदा नहीं पहुंचाया. वैसे भारत के महालेखा परीक्षक (कैग) ने भी इस बात का जिक्र किया है कि कैसे बीजेपी सरकारों के समय अडाणी समूह को फायदा मिला?
दूसरा विषय है एक नए राज्यपाल की नियुक्ति का. 39 दिन पहले रिटायर हुए जस्टिस अब्दुल नजीर को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया है. उनकी नियुक्ति को लेकर कांग्रेस ने सवाल उठाए हैं. ऐसा पहली बार नहीं है जब किसी राज्यपाल की नियुक्ति को लेकर सवाल उठा हो.
संविधान के अनुच्छेद 153 में राज्यपाल की नियुक्त के बारे में बताया गया है. इसके मुताबिक “प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा.” संविधान के लागू होने के कुछ वर्षों बाद 1956 में एक संशोधन किया गया जिसके मुताबिक एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल की जिम्मेदारी दी जा सकती है. चूंकि राष्ट्रपति प्रधान मंत्री और केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है, इसलिए राज्यपाल को केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त और हटाया जाता है.
राज्यपाल की नियुक्ति के लिए क्या योग्यता होनी चाहिए इसके बारे में अनुच्छेद 157 और 158 में शर्तों को निर्धारित किया गया है. राज्यपाल को भारत का नागरिक होना चाहिए और 35 वर्ष की आयु होनी चाहिए. राज्यपाल को संसद या राज्य विधानमंडल का सदस्य नहीं होना चाहिए और किसी अन्य लाभ के पद पर नहीं होना चाहिए.
राज्यपालों की सूची में सबसे ज्यादा चर्चा जस्टिस (रिटायर्ड) एस. अब्दुल नजीर की हो रही है. सोशल मीडिया पर लोग जस्टिस (रिटायर्ड) एस. अब्दुल नजीर को राज्यपाल बनाये जाने पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं. जस्टिस नजीर अयोध्या राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की सुनवाई करने वाले पांच जजों की पीठ का हिस्सा रह चुके हैं, इसके साथ ही वह नोटबंदी को सही ठहराने वाले बेंच में भी शामिल थे. पांच जजों की संविधान पीठ में जस्टिस नागरत्ना के अलावा चार जजों ने नोटबंदी को सही ठहराया था.
सामान्य तौर पर देखें तो राज्यपाल की परिकल्पना एक राजनीतिक प्रमुख के रूप में की गई है जिसे राज्य के मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिए. राज्यपाल को संविधान के तहत कुछ शक्तियाँ प्राप्त हैं, जैसे राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को सहमति देना या रोकना, किसी पार्टी को राज्य विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने के लिए आवश्यक समय का निर्धारण करना या, चुनाव में त्रिशंकु जनादेश जैसे मामलों में, किस पार्टी को अपना बहुमत साबित करने के लिए पहले बुलाया जाना चाहिए. राज्यपाल की इस स्थिति को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है.
ऐसी स्थिति होने पर कई बार राज्यपाल पर केंद्र सरकार के इशारे पर काम करने का आरोप लग चुका है। दरअसल संविधान में इस बात के लिए कोई प्रावधान नहीं है कि राय में अंतर होने पर राज्यपाल और राज्य को कैसे काम करना चाहिए? राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच कई बात तीखे आरोप भी लगाए जाते रहे हैं.
ये दोनों विषय चर्चा में हैं,और ये दोनों उतने छोटे नहीं है, जितना देश के पक्ष - प्रतिपक्ष समझे हुए हैं. न तो उत्तर देने वाली सरकार गम्भीर है और न मुद्दे उठाने वाला प्रतिपक्ष ही, परिणाम भुगतना आप हम जैसे नागरिकों को होगा.