एक खंटी वामपंथी पत्रकार हैं रवीशकुमार
बिहार से दिल्ली आए रवीशकुमार को वामपंथ के गढ़ कहे जाने वाले जेएनयू ने ऐसे वामपंथी संस्कार दिये जो शायद उनके खून में घुल गये. उन्होंने सर्वहारा की चिंता से कभी समझौता नहीं किया. हां पत्रकारिता को स्थाई विपक्ष बताने वाले सूत्र वाक्य को उन्होंने मोदीजी के दिल्ली में सत्तारूझ होने के साथ ज्यादा मजबूती से पकड़ कर रखा. उनका वामपंथ कई बार छद्म भी दिखा जब उन्होंने गैर भाजपाई सरकारों के पापों पर चुप्पी साध ली. वामपंथ समर्थक सरकारों पर तो उनकी चुप्पी स्थाई थी.
इसका लाभ भी रवीशकुमार ने स्वयं और अपने संस्थान एनडीटीवी को खूब दिलवाया. विदेशों से वामपंथी समर्थकों ने अपनी तरह से जमकर मदद की. यह देश मंे भी बनी रही. इसी प्रकार भाजपा विरोधियों का सफल दोहन भी किया. यही कारण रहा कि रवीश कुमार ने ताकत के साथ वामपंथी छाप को पकड़े रखा. एनडीटीवी के कर्ताधर्ता प्रणवराय ने भी दूध देती गाय को बनाए रखा. यह दोनों की एक तरह की मजबूरी थी. कांग्रेस और वामपंथियों की सत्ता से लगातार बढ़ती दूरी उसका मूल कारण बना. वैसे दोनों को भाजपाई शायद पचा भी नहीं पाते इस कारण इन्हें अपने पाले में लाने का किसी प्रकार का प्रयास भी शायद भाजपा और सरकार ने नहीं दिखाया.
रवीशकुमार ने एनडीटीवी छोड़ दिया है पर राय अभी भी बरकरार हैं. नये मालिक अडानी ने कह दिया है कि उन्हें किसी से कोई आपत्ति नहीं है. बस यह ध्यान रखना है कि सरकार के बुरे कामों की पोल खोलने के साथ अच्छे कामों की सराहना भी करना है. इसे देश के एक महान पत्रकार और संपादक ने ‘बनियाई पत्रकारिता’ का नाम दिया था. यानि वह पत्रकारिता जिसमें विवेक के लिये कोई जगह नहीं होती. ‘‘राम की भी जय और रावण की भी जय‘‘ उसका ध्येय वाक्य होता है. हो सकता है इसी के चलते प्रणवराय कुछ समय एनडीटीवी में और बने रहें. पर टीवी चैनल जैसे पूंजी आधारित उद्योग में किसी को भी स्थाईत्व की उम्मीद नहीं करना चाहिये. यहां लाभ के पीछे भागना आवश्यकता ही नहीं मजबूरी और अनिवार्य बुराई जैसी भी है.
वैसे कम से कम रवीशकुमार के लिये एनडीटीवी घाटे का सौदा नहीं हैं. उनके समर्थक आगे भी उन्हें दायें बायें से हर प्रकार का सहयोग देते रहेंगे. साथ ही सोशल मीडिया पर वे जितना एनडीटीवी से कमाते थे उससे ज्यादा ही कमा लेंगे ऐसा ज्यादातर जानकार मानते हैं.