सरकार और सुप्रीम कोर्ट उलझे सुप्रीमेसी की लड़ाई में
सरकार का काम है कानून बनाना और सुप्रीमकोर्ट का काम है उसे संविधान कसौटियों पर कसना और तय करना कि वह संवैधानिक है या असंवैधानिक. यह है सामान्य सी बात. अभी तक होता यह था कि सरकार ज्यादा उलझती नहीं थी. सुप्रीम कोर्ट भी इसमें नहीं फंसता था.
सरकार कानून बनाए और सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक बता दे तो सरकार मान लेती थी. कभी कोई राजनीतिक या दूसरी दिक्कतें होती थी तो सरकार संवैधानिक गुंजाइश बना कर संशोधनों के साथ नया कानून लाती थी और फिर सुप्रीम कोर्ट ज्यादा जिद नहीं करता था. हां कोई चुनौती दे तो उसे दुबारा संविधान की कसौटी पर परख कर फैसला जरूर सुनाता था.
होने यह लगा था कि संवैधानिक सक्रियता के चलते सरकार की लापरवाहियों से परेशान होकर सुप्रीम कोर्ट ऐसे प्रावधान कर देता था जिससे याचिकाकर्ताओं की परेशानी दूर हो जाए. सरकार भी उसे बिना आपत्ति किये मान लेती थी.
लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्तियों के लिये जो कॉलेजियम बनाया है उसको लेकर सरकार जरा सख्त नजर आ रही है. कॉलेजियम पर आपत्तियां पब्लिम डोमेन में पहले से ही हैं पर उन पर सुप्रीम कोर्ट चुप था और सरकार भी ज्यादा आलोचना नहीं कर रही थी. पर हाल में संविधान दिवस पर कानून मंत्री कुछ ज्यादा ही बोल गये. जो सुप्रीम कोर्ट को नागवार गुजरा. सुप्रीम कोर्ट द्वारा दुबारा भेजे गये नामों को स्वीकार कर सुप्रीम कोर्ट नहीं भेेजे जाने वाले प्रकरणों के एकत्रित हो जाने पर कानून मंत्री यहां तक कह गये कि सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि वे नियुक्तियां ज्यादा जरूरी है तो सुप्रीम कोर्ट खुद ही नियुक्ति भी कर ले. यह कुछ ज्यादा ही तीखी टिप्पणी है.
एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी बताई और कहा कि न्यायाधीश नियुक्ति आयोग को असंवैधानिक बताए जाने से सरकार नाराज लगती है यही कारण है कि वह कॉलेजियम द्वारा सुझाए गये नामों पर अपनी राय देने में कॉफी देर कर रही है. यही नहीं जिन नियुक्तियों पर सरकार ने आपत्ति लगाई उन पर विचार कर सुप्रीम कोर्ट ने विचार उन्हें दुबारा भेजा तो सरकार ने उन्हें विचार कर अब तक वापस क्लीयर कर भेजा नहीं है ताकि उनकी नियुक्ति की जा सके. जबकि नियमों के तहत उन पर सरकार को कुछ करना ही नहीं है क्योंकि उन्हें स्वीकार करने के लिये सरकार नियमानुसार बाध्य है. ऐसा होने से आपत्तियों में फंसे प्रस्तावित न्यायाधीशों की सीनियरीटी प्रभावित हो रही है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अप्रत्यक्ष तौर पर यह संकेत जरूर दिया कि सुप्रीम कोर्ट स्वयं नियुक्ति कर सकता है इसमें ज्यादा परेशानी नहीं है. इन सारे विचारों से सुप्रीम कोर्ट ने एटार्नी जनरल को अवगत भी करवा दिया.
अब देखना यही है कि सरकार की तरफ से क्या प्रतिक्रिया या जवाब आता है.
पर समय के साथ कुछ ऐसा घटनाक्रम चला कि बात कॉलेजियम पर आ गई. अब भी नियुक्ति राष्ट्रपति ही करते हैं. पर भूमिका सरकार से ज्यादा सुप्रीम कोर्ट की हो गई. यह बदलाव कैसे आया यह अलग और लंबा विषय है.
दिलचस्प बात यह है कि यह अहम कि लड़ाई नजर आती है कि कौन बड़ा है. संविधान सभा में जब न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर जो चर्चा हुई थी उस वक्त भी ऐसा ही सवाल उठा था कि जब प्रस्ताव किया गया तो एक सदस्य ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से कंसल्ट करके करेंगे. पर उसमें जब एक सदस्य का संशोधन आया और कहा गया कि कंसल्ट नहीं कांकरेंश शब्द का प्रयोग किया जाए. यह एक प्रकार से सुप्रीमकोर्ट के न्याधीश की सलाह को मानने की बाध्यता थी. इस का निपटारा करते हुए बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा था कि न्यायाधीश भी मानव हैं और वे किसी प्रकार के प्रभाव में आ सकते हैं. इसलिये इस जगह कंसल्ट शब्द ही उचित रहेगा. वही संविधान में रखा गया.
अंत में ‘‘मनुज बली नहीं होत है समय होत बलवान, भीलन लुटी गोपियां वही अर्जुन वही बाण’’.