अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाने के लिये क्यों बैचेन है सुप्रीम कोर्ट

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2022-11-24 23:08:13


अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाने के लिये क्यों बैचेन है सुप्रीम कोर्ट

अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाने के लिये क्यों बैचेन है सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट कड़वा कड़वा थू थू और मीठा मीठा गप गप की तर्ज पर काम करना चाहता है. यह गलत था और गलत है. पर इसका मौका भी संसद और कार्यपालिका स्वयं उसे देती है यह सही भी है. क्योंकि वह ढ़ेरों ऐसे काम ही ऐसे करती है जो न्यायिक समीक्षा में गलत पाए जाते हैं. यह सही है कि ऐसे गलत काम सत्तर साल से हो रहे हैं पर इसका यह मतलब कदापि नहीं हो सकता कि वे आज और आगे भी ऐसे ही होते रहें.
इसी प्रकार सुप्रीम कोर्ट भी समय समय पर ऐसे काम करता रहा है जो गलत हैं. पर चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं के लिये ऐसी कार्य प्रणाली खुद ही बना ली है कि उसके गलत कामों की समीक्षा हो नहीं पाती या समीक्षा हो भी तो उसे दंडित नहीं किया जा सकता. उदाहरण के लिये अदालती काम की समीक्षा तो हो सकती है और पूर्व के फैसले को बदला जा सकता है. पर उस गलत फैसले के लिये किसी जज को दंडित नहीं किया जा सकता.
यह सवाल हाल में चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति को लेकर उठी बहस में ज्यादा मुखरता के साथ उठा है क्योंकि सरकार ने चुनाव आयुक्त के लिये चुने गये सेवानिवृत नौकरशाह गोयल के फैसले को लेकर सख्त रवैया अपनाया है और कह दिया है कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है. उसमें सदस्यों के चयन का अधिकार कार्यपालिका यानि सरकार को है. सुप्रीम कोर्ट इसमें दखल नहीं दे सकता. हां वह न्यायिक समीक्षा में सरकार के फैसले को गलत पाए तो उस नियुक्ति को रद्द कर नई नियुक्ति के लिये सरकार को कह सकता है.
जबकि सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि क्यों न नियुक्ति की प्रक्रिया में सुप्रीम कोर्ट के एक जज हो शामिल किया जाए ताकि ऐसी गलती हो ही नहीं. यह  सुनवाई न्यामूर्ति के एम जोसेफ, की अध्यक्षता में न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस, ़ऋषिकेश रॉय और सी टी  रविकुमार की पांच सदस्यीय संविधान पीठ कर रही है. उसकी नजर में ऐसे कानूनों का अभाव है जिनके आधार पर गोयल की नियुक्ति पर विचार किया जा सके. उसने इसी लिये गोयल की नियुक्ति की फाइल मांगी है. अदालत ने तो यहां तक  कहा है कि जो चार नाम सरकार ने छांटे हैं हो सकता है ये सभी सरकार के समर्थक प्रतीत होते हैं. वैसे इस बात का कोई तरीका उपलब्ध नही है जो यह बता दे कि चुने गये व्यक्ति सरकार के यस मैन हैं या नहीं. बड़ी संख्या  में इन से बेहतर लोग हो सकते थे जो चयन में छूट गये हों.
सरकार इसके लिये तैयार नहीं है और लगता है कि सुप्रीम कोर्ट भी अड़ा हुआ है. इसकी गुंजाइश तो है कि जब तक मामले में अंतिम फैसला न आए सुप्रीम कोर्ट गोयल की नियुक्ति पर अंतरिम स्थगन दे दे. कुछ वैसा ही जैसा किसान कानून में हुआ था. उसने सरकार को अप्रत्यक्ष तरीके से कानून को वापस लेने को बाध्य कर दिया. क्योंकि न सुप्रीम कोर्ट ने उसके द्वारा नियुक्त समिति की रिपोर्ट के आलोक में कोई कार्यवाही की न स्थगन को हटाया न इस बात पर ध्यान दिया कि आंदोलनकारी किसान उसके द्वारा जारी किये जा रहे नोटिसों को अहमियत तक दे रहे हैं. नोटिस तक नहीं ले रहे हैं और सुप्र्रीम कोर्ट एकपक्षीय फैसले के लिये तैयार नहीं था.
सरकार के हर फैसले मेें लोकहित के साथ राजनीति भी जुड़ी रहती है. जब सरकार को लगा कि उसे राजनीतिक नुकसान हो रहा है तो उसने ही यह कह कर इन्हें वापस ले लिया कि कानून भले ही गलत न हों पर वे विरोधियों को सही तरीके से समझा नहीं पा रहे हैं इसलिये कानून वापस ले रहे हैं.
वापस लौटें चुनाव आयोग मामले पर. कोर्ट का सुझाव है कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति मेें सुप्रीम कोर्ट जज को शामिल किया जाए. पर यह भी तो सोच कर देखें कि क्या जहां सुप्रीम कोर्ट के जज शामिल हैं वे नियुक्तियां विवाद के परे रह पाई हैं. ईडी और सीबीआई प्रमुख की नियुक्तियों में कोर्ट का प्रतिनिधि शामिल था पर उसके बाद भी क्या आज ईडी और सीबीआई प्रमुख आरोपों से बच पा रहे हैं. जबकि चुनाव आयोग का अभी तक का रिकार्ड ऐसा रहा है जिसकी सराहना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होती रही है.
लगे हाथ इस बात को भी चर्चा कर लें कि अदालतें लोकसभा और विधानसभा अध्यक्षों के फैसलों की न्यायिक समीक्षा करती रही हैं. खासकर अवमानना के मामलों में. कई बार अदालतें यह सुझाव भी दे चुकी हैं कि विधानसभा अध्यक्षों को फैसलों से पहले किसी ऐसी समिति की राय लेनी चाहिये जिसमें कोई सेवानिवृत जज शामिल हो ताकि अक्ष्यक्षों के फैसले कानून सम्मत हों. कल से यही बात लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा अध्यक्ष के लिये भी कही जा सकती है.
फिर पावर ऑफ सेपरेशन का क्या होगा जिसकी दुहाई देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम की जगह आयोग बनाने के संसद द्वारा पारित कानून को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया था.
सोशल मीडिया पर यह चर्चा भी खूब चल रही है कि सुप्रीम कोर्ट स्वयं भी तो जजों के चयन  कि लिये कॉलेेजियम की कार्यवाही को उजागर नहीं करता. न ही  यह बताता है कि उनके द्वारा चुने गये लोग ही बाकी उपलब्ध लोगों सर्वश्रेष्ठ है. यहां तक कि हाई कोर्ट भी अपने कॉलेजियम के बारे में इसे ही कमेंट झेलता आया है.   

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