आज पत्रकारिता में वह सब कुछ हुआ जो अभूतपूर्व था.जानेमाने स्तंभ लेखक और कभी नर्मदा बचाओ आन्दोलन के समर्थन में लेख लिखने वाले स्वामीनाथन अय्यर ने एक आलेख में लिखा कि मेधा पाटकर नर्मदा परियोजना के बारे में गलत थी.उन्होंने मुझे और अन्य मानवतावादियों को मूर्ख बनाया. वे और अन्य बुध्दिजीवी देश से माफी मांगेंगे??.इस बीच नर्मदा में बहुत पानी बह गया और मध्यप्रदेश इन परियोजनाओं पर कम से कम दस साल पिछड़ गया.नर्मदा पंचाट के निर्णय के अनुसार हमारा प्रदेश अपने हिस्से के पानी का 2024 तक उपयोग कर पाने की स्थिति में नहीं है.
स्वामीनाथन अय्यर ने लिखा कि मैं मेधा पाटकर की 1989 में सरदार सरोवर बांध पर चर्चा में शामिल हुआ था. पाटकर ने कहा कि आदिवासी संस्कृति नष्ट हो जायेगी.नई बसाहट में वे क़र्ज़दार हो जायेंगे. उनकी दी हुई ज़मीनें चली जायेंगी. शहरों की झुग्गी बस्तियों में वे भिखारी बन कर रहेंगे. उनकी औरतों को वेश्यावृति करनी पड़ेगी. इसलिये बांध का काम रूकना चाहिये. बांध के लाभों के बारे में उन्होंने कहा कि धनी किसानों को ही इसका लाभ मिलेगा.वे बोलीं कि न तो कच्छ तक पानी पहुँचेगा न कोई सिंचाई होगी. बांध बनाने के लिये भारी ब्याज दरों के कारण सरकारें दिवालिया हो जायेंगीं. मुझे और दूसरे मीडिया को यह तर्क प्रभावी लगे और हमने इसके खिलाफ लेख लिखे.आज साबित हो गया है कि मैं ग़लत था और हज़ारों बाक़ी मानवतावादी भी ग़ुस्से में होंगे कि किस प्रकार हमें अपने मतलब के लिये मूर्ख बनाया गया. मैंने कोलम्बिया वि. वि. की परियोजना के तहत बसाहटों मे जाकर शोध किया और नतीजे आँखें खोलने वाले हैं. आदिवासी उच्च जीवन स्तर जी रहे हैं. 31 गाँवों में कागज मिलों को 32 करोड़ का बांस सप्लाई किया है. उन्हें दी गई ज़मीनों की कीमतें बढ़ गई हैं. पांच एकड वाले कई किसान आज करोड़पति हो गए हैं.
स्वामीनाथन अय्यर की गिनती वर्तमान सरकार के समर्थकों में कभी नहीं रही है. यहाँ तक कि उतरप्रदेश चुनाव में भाजपा के हारने की संभावना व्यक्त की थी.
नर्मदा बचाओ आन्दोलन से मध्यप्रदेश की भारी क्षति हुई है. मैं स्वयं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण में प्रतिनियुक्ति पर रहा हूं. उस समय वहाँ 6०० करोड़ की परियोजनाएँ थी और उनकी लागत हर साल न्यूनतम दस प्रतिशत बढ़ रही थी. बजट मिलता था सालाना 150 करोड़. इसमें भी काफ़ी बड़ी राशि वेतन-भत्तों पर खर्च हो जाती थी. पिछली सरकार के दस वर्ष कमोबेश ऐसे ही रहे. इस बीच आन्दोलन ने प्रशासन-शासन और सभी अदालतों में जाकर रोड़े अटकाए. हालाँकि नतीजे उनके पक्षों पूरी तरह से कभी नहीं रहे पर परियोजनाएँ कम से कम एक दशक पिछड़ गई.
नर्मदा घाटी के एक विशेषज्ञ का मत है कि यह राजनीति में उलझ गया मामला भी है. एक समय था माहौल बांध के खिलाफ था. आज जब इंदिरा सागर, मान-जोबट जैसी परियोजनाओं के लाभ मिलने लगे हैं. विस्थापितों का जीवन खुशहाल हुआ है. निमाड में केसर की खेती होने लगी है. तब नर्मदा लाभ का विषय है.
बहुत से लोग मानते हैं कि विकसित देश नहीं चाहते है कि एशिया के देश विकसित हों इसलिए वहाँ के स्वयंसेवी संगठन यहाँ के स्वयंसेवी संगठनों की आड़ लेकर यह एजेंडा पूरा करते हैं. ख़ैर इन मामलों में जाँच चल रही है, इसलिये अभी जल्दबाज़ी में कोई टिप्पणी उचित नही है. आख़िर विश्व बैंक द्वारा भेजे गए मोर्स कमीशन को स्वामीनाथन अय्यर ने “अर्बन नक्सल “ यूँ ही नहीं कहा.
- लाजपत आहूजा, भोपाल
साभार - फेसबुक