ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की बंगाल में सरकार बचना अब मुश्किल है. कारण है बंगाल की राजनीति में ममता की एक लाजर देन लाइफ छवि का ध्वस्त होना. ममता की तीस साल के राजनीतिक संघर्ष की कमाई उन्होंने दस साल में गंवा दी. बंगाल में कभी कांग्रेस की नक्सलवादियों की हिंसा का जवाब हिंसा से देने की नीति भारी पड़ी थी और कम्युनिस्टों ने अपने इन वैचारिक बंधुओं के लिये लंबी लोकतांत्रिक लड़ाई लड़ी. कुछ कुछ हिंसा का सहारा भी लिया पर जीत हासिल की और कम्युनिस्ट सरकार बनाई जो कई दशक चली. उसकी हिंसा के जवाब में ममता बनर्जी ने लंबा संघर्ष किया और बंगाल की शेरनी की छवि हासिल की और बिना प्रेस की सूती सफेद साड़ी में त्याग और ईमानदारी की जीवंत मूर्ति का खिताब पाया और पहले कांग्रेस के सहयोग से और फिर खुद की सरकार बनाई.
लेकिन जो कटमनी और तोलाबाजी की रणनीति कम्युनिस्टों से पाई उसे विरासत के रूप में ममता बनर्जी ने सहेजा. खुद तो ईमानदार, सादगी और संघर्ष की जीवंत प्रतिमूर्ति बनी रही पर पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को जमकर हिंसा, बेईमानी, कटमनी और भ्रष्टाचार की खुली छूट दी. नतीजन लंबा मुख्यमंत्री काल पाने में कामयाब रहीं. हाल के बंगाल विधानसभा चुनाव मेें उन्होंने लोकप्रियता का कथित रिकार्ड कायम किया. वह रक्तरंजित था जिसकी इजाजत लोकतंत्र नहीं देता. आतंक ऐसा था कि तृणमूल से भाजपा में आकर जीतने वाले भी वापस तृधमूल में चले गये.
पर भाजपा ने हार नहीं मानी. वह उस छात्र की तरह रही जो कम अंक से पास होने के बाद निराश न होकर रिजल्ट आने के दूसरे दिन ही अगली परिक्षा की तैयारी में ज्यादा मेहनत के संकल्प के साथ जुट जाता है. उसने अपने कार्यकर्ताओं का खूनी दमनचक्र देखा पर कानून और संविधान का रास्ता नहीं छोड़ा. जो सत्ता उसके हाथ में थी उसका सहारा लिया. अदालतों ने ममता सरकार के खिलाफ सीबीआई जांच तक के आदेश दिये. अदालती निगरानी में जांच के लिये कमेटियां बनाई.
नतीजा रंग लाया और कई साल से चल रहे क्षिक्षक भर्ती घोटाले की जांच का काम हाईकोर्ट ने सीबीआई को सौंपा और सीबीआई की जांच में भले ही ज्यादा कुछ हाथ नहीं लग रहा हो पर उसकी जांच से मिले सूत्रों को ईडी ने खंगोला तो कुछ संकेेत मिले और निराशा के बीच अचानक ऐसाी सफलता मिली की शिक्षक भर्ती घोटाले सहित अन्य घोटालों, तोलाबाजी और कटमनी से एकत्रित नोटों के पहाड़ हाथ लगे जिन्हें देखकर सारा देश आश्चर्य से दातों तले उंगलियां दबाने लगा.
ममता के विश्वस्त साथी पार्थो चटर्जी और उनकी महिला मित्र अर्पिता मुखर्जी को ईडी ने दबोच लिया. ममता बनर्जी ने अपना दामन साफ रखने के लिये पार्था चटर्जी को मंत्री पद से हटा दिया और पार्टी से निलंबित कर दिया. सारी औपचारिकताएं पूरी कर देर अबेर उन्हें पार्टी से भी निकाल दिया जाएगा.
पर तय मानिये ममता भ्रष्टाचार के इस कीचड़ से बच नहीं पाएगी. उन्होंने पैसे को स्वयं कभी हाथ नहीं लगाया. न सरकार में गड़बड़ियों का वे माध्यम बनी. पर वे भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों को तब तक अनदेखा करती रहीं जब तक पानी नाक तक नहीं आ गया. वह उस स्थिति में सक्रिय हुई और बचाव के कदम उठाकर मामले को तात्कालिक तौर पर शांत करवाया पर आगे कोई कार्यवाही नहीं होने दी. इसे इस शिक्षक भर्ती घोटाले से ज्यादा अच्छी तरह से समझा जा सकता है. तीन तीन बार ममता बीच में पड़ी और आंदोलनकारियों को आंदोलन खत्म कर घर जाने के लिये मनाने में कामयाब हुई पर न गड़बडिंयां ठीक करवाई न किसी पर कार्यवाही होने दी.
पर अब इस मामले की जांच की आंच उन पर आना तय है. पार्थो चटर्जी राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं. वे तृधमूल कांग्रेस के संस्थापक सदस्य हैं. ममता बनर्जी की सभी सरकारों में वे मंत्री रहे हैं. वर्तमान में तो उनकी हैसियत नंबर दो की थी. ममता बनर्जी के अति विश्वासपात्र लोगों में से एक थे.
पार्थो चटर्जी ने ईडी के शिकंजे में फंसने के बाद गिरफ्तारी की सूचना देने के लिये ममता बनर्जी को चुना. कानून के तहत ईडी ने उन्हें इसकी सुविधा दी थी कि वे किसी एक व्यक्ति को फोन कर अपनी गिरफ्तारी की सूचना किसी को भी दे सकते हैं. पार्थो चटर्जी ने देर रात में तीन बार फोन लगाया पर ममता ने उसे नहीं उठाया. जबकि टीवी पर वह सारा घटनाक्रम शायद देख कर हालात को समझ रही होंगी. इसलिये फोन पर जवाब देना उचित नहीं समझा. पार्थो चटर्जी चाहते तो एक बार या दो बार फोन नहीं लगने पर किसी और को भी सूचना देकर काम चला सकते थे. पर उन्होंने ऐसा नहीं किया. यह उनकी चाल थी जिसके परिणामों से वे वाकिफ रहे होंगे. इस काम से ईडी के रिाकॉर्ड में ममता बनर्जी का नाम आ गया और इसी के आधार पर ईडी चाहे तो ममता बनर्जी को पूछताछ के लिये बुला सकती है.
हालांकि इस बात को इस प्रकार से भी समझा जा सकता है कि ममता भ्रष्टाचार में फंसे अपने मंत्रियों से लड़ने के लिये कई बार अदालत से लेकर सीबीआई दफ्तर तक को घेर चुकी है औ पार्थो चटर्जी को शायद यकीन रहा होगा कि ममता उनका साथ भी देंगी और उन्हें अकेला नहीं छोेड़ेंगी. पर वे गलत साबित हुए.
वहीं कहा जाता है कि ममता के कई मंत्री और सांसद तथा वरिष्ठ नेता अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को बार बार कहते थे कि अपनी सरकार है तो उन्हें क माने की पूरी छूट है. वे तोलाबाजी और कटमनी का उपयोग करें पर जो कमाएं उसका 75 प्रतिशत पार्टी फंड में दें बाकी अपने पास रखें. इस प्रकार से तृणमूल के नेता और कार्यकर्ता अपनी नेतागिरी और राजनीति करें और परिवार भी पालें. पैसा जमा करें पर साथ साथ पाटर्ी्र को भी सहयोग करें.
कहा जा रहा है कि यही बात ईडी की पूछताछ में पार्थो चटर्जी भी कह रहे हैं. उनकी साथी अर्पिता मुखर्जी भी इसकी पुष्टि कर रही हैं. बताया जा रहा है कि ईडी ने जो डायरियां जब्त की हैं उनमें पैसा देने वाले का नाम, किस नेता और कार्यकर्ता ने सिफारिश की. कितना पैसा दिया गया. अगर वह मांग से कम है तो वह किस प्रकार से कितनी किश्तों में कब कब बकाया रकम देगा. देने वाला कौन है, उसकी पोस्टिंग कहां की गई है आदि का रिकॉर्ड है. चूंकि पार्टी के काम में पैसा बार बार देना पड़ता था इसलिये उसे यहां वहां न जमा किया गया न लगाया गया. बस मुखर्जी के नाम से लिये गये फ्लेटों में एकत्रित कर लिया गया.
अब जांचें तेज होंगी. पक्षपात के आरोप लगेंगे लेकिन यह याद रखने की बात है कि कोई भी संदिग्ध स्वयं या उसके समर्थक पक्षपात के आरोप तो लगा सकते हैं पर उसे पक्षपात के आधार पर कभी भी निर्दोष करार नहीं दे सकते. किसी संदिग्ध पर कार्यवाही नहीं हुई तो ज्यादा से ज्यादा कोई अदालत उस संदिग्ध पर भी कार्यवाही करने को कह सकती है पर पर ऐसा न करे या न करे तो भी जांच में फंसे संदिग्ध को निर्दोष तो कदापि नहीं बता सकती है.
पर ममता बनर्जी इन सबसे अनजान थी शायद नहीं. उसे डर तो था. यही कारण है कि वे अपने तेवर ढीले कर रही थी. राष्टपति चुनाव से पहले असम के मुख्यमंत्री हेमंत विश्वासरमा के साथ अमित शाह से दाजलिंग में मुलाकात को ममता के कमजोर हो रहे तेवरों से जोड़ा जा रहा है. ममता के उपराष्ट्रपति चुनाव में अलग रहने, विपक्ष की बैठकों से कन्नी काटने को भी इसी से जोड़ा जा रहा है. शायद ममता अपने भतीजे के चर्चित घपले घोटालों में कुछ राहत की उम्मीद रखती हों.
पर ऐसा संभव नहीं लगता है. भाजपा तेवरों में कमी नहीं लाएगी. वह ममता के साथ अपने को कभी नहीं जोड़ना चाहेंगी. मोदी विरोधी मीडिया इसके राजनीतिक फलितार्थ को महसूस कर रहा है. वह ममता की इन गतिविधियों को विपक्ष की एकता के लिये बड़ा विश्वासघात बता रहा है. विपक्ष भी तो ममता के साथ नहीं आ रहा है.
यह सारी जानकारियां टुकड़ों टुकड़ों में विभिन्न माध्यमों से पब्लिक डोमेन में आ चुकी हैं. सोशल मीडिया में उपलब्ध है. यहां बताने का आशय यही साबित साबित करना है कि पार्थो चटर्जी के नोटों के पर्वतों के तार ममता बनर्जी से जुड़ते हैं. उनकी ईमानदारी और सादगी की छवि तार तार हो चुकी है. अब उन्हें कोई भी बंगाल की शेरनी कहने का साहस नहीं कर पाएगा.
ये सब तो साइड स्टोरिज हैं. मूल कथा यही है कि ममता बनर्जी और उनके साथियों के खिलाफ जांचें तेज होंगी. ममता का हाल उद्धव ठाकरे जैसा और तृणमूल का हाल शिवसेना जैसा होने की प्रबल संभावना है. ममता सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है. वह कब तक बनी रहेगी यह समय बताएगा पर उसका गिरना तय है इसमें शायद की किसी को संशय हो.