खालिस्तानी आतंकवादी पन्नू ने 29 अप्रैल को पंजाब में खालिस्तान स्थापना दिवस मनाने की अपील की और ऐसा करने वालों को भारी पुरस्कार देने का लालच भी दिया. किसान आंदोलन के समय से ही खालिस्तान समर्थकों का नेटवर्क मजबूती पकड़ रहा था. किसानों की आड़ में प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी यात्रा में भी सफल खलल डाला गया. इसे प्रधानमंत्री की सुरक्षा को बड़ा खतरा बताया गया जिसकी जांच एनआईए कर रही है. दिल्ली में किसान आंदोलन के समय लालकिले पर जो अराजकता मची उसमें भी खालिस्तान समर्थकों का हाथ बताया गया था. यानि तब से खालिस्तान समर्थक एक तरह से अनचैलेंज चल रहे हैं. यह कहा गया था कि केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की सरकार पंजाब में बनी तो यह संकट और गहराएगा.
पटियाला में खालिस्तानी अपील को खुला चैलेंज मिला और खालिस्तानी मुर्दाबाद रैली निकालने की घोषणा की गई. यह काम मुंबई की शिवसेना से जुड़ी एक ईकाई ने हाथ में लिया. इससे खलबली मच गई. बिना इजाजत के खालिस्तान मुर्दाबाद रैली निकली तो उस पर तलवारों से हमला किया गया. पत्थर फैंके गये. कहा गया कि रैली वालों ने भी पत्थरों का जवाब पत्थरों से दिया. पुलिस ने हवाई फायर कर स्थिति को नियंत्रण में लिया. पर इसे भी खालिस्तान समर्थकों ने अपनी जीत की तरह लिया और एक तरफ जहां पुलिस हवाई फायरिंग कर रही थी तो उसके बीच भागने की बजाय हमलावर भांगड़ा करते दिखे जो एक तरह की खुशी का संकेत था. पुलिस ने लाठियां भी चलाई और स्थिति को पूरी तरह से शांत किया. बाद में गिरफ्तारियां भी हुई. संतुलन बनाने के लिये दोनों तरफ से लोगों को पकड़ा गया. शिवसेना ने उस नेता को पार्टी से बाहर कर दिया जिसने रैली का आयोजन किया था.
इससे कम से कम अभी तो संकेत यही गया कि पुलिस की तैयारियां पूरी नहीं थी. लोकल इंटेलिजेंस फेल रही. पुलिस ने पर्याप्त बल प्रयोग भी नहीं किया. इस बात को उछाला भी गया कि इसके लिये पुलिस को उपर से निर्देश थे. कुछ ऐसा ही तो प्रधानमंत्री की चुनावी यात्रा के समय हुआ था. प्रधानमंत्री का काफिला फंसा रहा और पुलिस मूक दर्शक बनी रही. आखिर प्रधानमंत्री को रास्ते से वापस लौटना पड़ा.
केजरीवाल ने दो समय के सांसद रहे और नई विधानसभा के सदस्य भगवंत मान को मुख्यमंत्री जरूर बना दिया. पर उनका दो साल का संसद का कार्यकाल क्या किसी को प्रभावित करता है? मैने उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद संसद के वीडियो देखे. वे केजरीवाल का गुणगान और दिल्ली सरकार की प्रशंसा के अलावा कुछ और कहते नजर नहीं आए. हां उनके हास्य कलाकार के तौर पर स्टेंडअप कामेडियन के तौर पर काम बेहद सराहनीय था यह सब की तरह मुझे भी लगा.
ऐस समय में नौकरशाही की भूमिका काफी अहम हो जाती है. मुख्यमंत्री और उनके मंत्री तथा सत्तारूढ पार्टी काफी अहम होते हैं. पर उन्हें कानूनी और प्रशासनिक सलाह देना तो नौकरशाही का काम है. हां में हां मिलाने की बजाय उसे विपरीत सलाह देने का साहस भी बताना चाहिये. उसके बाद भी मंत्रिमंडल न माने तो और बात है. उसके बाद अनेक प्रशासकीय तरीके हैं जिनका उपयोग कर नौकरशाही राज्य का प्रशासन कानून के मुताबिक चलाने के लिये उठा सकती है. यह सब करने की सभी जगह जरूरत होती है पर वर्तमान में पंजाब में कुछ ज्यादा है यह सोच कर काम किया जाना चाहिये.