कोरोना और समानता का अधिकार

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2022-05-03 01:29:02


कोरोना और समानता का अधिकार

3 मई. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जिसने कोराना की वैक्सीन नहीं लगवाई है, उस पर आवाजाही और दूसरे प्रतिबंध नहीं  लगाए जा सकते. यह उसके समानता के मूल अधिकार का हनन है. हालांकि अदालत ने यह जरूर कहा  है कि जहां उसे जरूरी लगे वहां कुछ न्यायोचित बंधन लगाए जा सकते हैं.
कोई सुप्रीम कोर्ट से पूछे कि मेरा स्वास्थ्य का अधिकार भी तो मूल अधिकार है. मेरे स्वास्थ्य को कोई संकट में डाले तो क्या मेरे अधिकार का हनन नहीं हुआ.
तब हो सकता है अदालत अपना कुछ और फैसला दे दे.
यह गड़बड़ी इसलिये है कि हमारी अदालते मामलों का निपटारा करती हैं, न्याय नहीं देती. दोनों पक्षों के वकील साहिबान जो तर्क देते हैं, कानून का जो ज्ञान अदालत के सामने पेश करते हैं. जो प्रमाण अदालत के सामने रखे जात हैं उसके आधार पर कानून के मुताबिक फैसला सुना दिया जाता है. इसीलिये एक प्रख्यात वकील ने कहा  था कि हमारे यहां तो वकीलों के ज्ञान की कुश्ती होती है. जिस वकील के ज्ञान में ज्यादा कानूनी दावपेंच होते हैं वह जीत जाता है. स्वाभाविक है कि ज्यादा ज्ञानी वकील यानि ज्यादा फीस. वो भी दस बीस लाख रूपया प्रति पेशी तक.
बात करें फिर अदालत के फैसले की उसका वह ऐसा फैसला होता है जिस पर अदालत को खुद पर यकीन नहीं  होता है कि वह सही है या गलत. इसलिये यह छूट दी जाती है कि तय समय सीमा में इसके खिलाफ बड़ी अदालत में अपील की जा सकती है.
बड़ी अदालत हाईकोर्ट मान लें तो वह भी सुनवाई कर फैसला तो देती है. सबआर्डिनेट कोर्ट का फैसला जस का तस रख सकती हैं या उसमें कुछ बदलाव या सुधार करने से लेकर पूरा फैसला तक बदल सकती हैं. मेरा सवाल है कि जब पूरा फैसला ही बदल गया हो तो कम से कम हाईकोर्ट को सबआर्डिनेट कोर्ट को गलत फैसले का दोषी मान कुछ तो सजा देनी चाहिये. पर ऐसा होता नहीं है. हां कभी कभार प्रतिकूल टिप्पणियां जरूर रहती हैं पर उनका कानूनी महत्व नहीं होता है. अदालत यहां तक कह देती है कि आरोपी पर लगे आरोपों में तो दम प्रतीत होती है पर साक्ष्य पर्याप्त नहीं है इसलिये संदेह का लाभ आरोपी को दे दिया जाए. यह है हमारी व्यवस्था जो कहती है सौ अपराधी छूट जाएं पर एक निरपराधी को सजा न मिले. यहां इसी चक्कर में कम से कम 90 अपराधी तो छूट ही जाते हैं. इसका संकेत सजा की दर देखकर लग जाता है.
यहां भी हाईकोर्ट बड़ी अदालत यानि सुप्रीम कोर्ट में अपील का अवसर देती है. क्योंकि हो सकता है उसके फैसले में खोट हो? यानि अपने ही फैसले पर पूरा यकीन नहीं. यही नहीं  यहां तो रिवीजन और बड़ी बैंच का भी आप्शन है. यानि मुकदमा चलता रहे. पेंडिंग बढे तो उसकी बला से.
अब वापस आएं कोरोना मामले में.
हमारे संविधान में व्यक्ति को महत्व दिया गया है. जिसे अंग्रेजी में इंडिव्यूजअल. जी हां आरोपी भी व्यक्ति है और फरियादी भी. दोनों के हक हैं. दोनों के हकांें के कानून हैं. राष्ट्रीय ही नहीं अंतर्राट्रीय तक.
पर यहां फरियादी की जेब जरा टाइट होती है और आरोपी की जेब में भरपूर पैसा. नतीजन जैसा पहले  कहा गया उसे अच्छा ज्ञानी वकील मिलता है. वहीं फरियादी हो  मामलों के बोझ से दबा सरकारी वकील. आरोपी का वकील पेशी के कई दिन पहले से फाइल पढ़ना और कानूनी किताबें टटोलना शुरू कर देता है. जबकि सरकारी वकील जिस दिन पेशी होती है उसके एक दिन पहले जूनियर से फाइल लेकर उसके साथ डिस्कस करता है. उसका नतीजा अदालत में कभी भी देखा जा सकता है.
इसीलिये कोरोना के मामले में फैसला ऐसा आया जिसमें फरियादी के अधिकारों का पूरा संज्ञान नहीं  लिया जा सका. अदालत ने कहा कि जो प्रमाण पेश किये गये वो पर्याप्त नहीं है कि किसी को कोरोना वैक्सीन लगवाने के लिये बाध्य किया जा सके. वह उसकी निजी आजादी का मामला है जिसकी संविधान गारंटी देता है. उसके आने जाने जैसे अन्य अधिकारों पर कोई बंधन नहीं  लादा जा सकता क्योंकि उसकी गारंटी भी संविधान देता है.

Contact:
Editor
ओमप्रकाश गौड़ (वरिष्ठ पत्रकार)
Mobile: +91 9926453700
Whatsapp: +91 7999619895
Email:gaur.omprakash@gmail.com
प्रकाशन
Latest Videos
जम्मू कश्मीर में भाजपा की वापसी

बातचीत अभी बाकी है कांग्रेस और प्रशांत किशोर की, अभी इंटरवल है, फिल्म अभी बाकी है.

Search
Recent News
Leave a Comment: