बुल्डोजर बड़ी चर्चा में है. कभी मध्यप्रदेश के एक मंत्री स्वर्गीय बाबूलाल गौर बुल्डोजर मंत्री कहलाने लगे थे. उन्होंने भोपाल के विकास और सड़कों पर यातायात सुविधाजनक बनाने के लिये बुल्डोलर से अतिक्रमण हटाए थे. बहुत कम मामले अदालत में गये. पर वहां भी उनकी सरकार की जीत हुई. अब बाबा योगी आदित्यनाथ के बुल्डोजर की चर्चा है. वहां भी मामले अदालत में नहीं उलझाए जा सके. बुल्डोजर का शिकार अपराधी जो आतंक से सरकारी जमीन पर अतिक्रमण कर चुके थे उन पर बुल्डोजर चला. फरार अपराधियों के गैर कानूनी निर्माण पर बुल्डोजर चला. बुल्डोजर ने बाबा योगी आदित्यनाथ की मुख्यमंत्री के तौर पर ऐतिहासिक वापसी करवा दी. जब दिल्ली में बुल्डोजर चला तो सुप्रीम कोर्ट ने रूकवा दिया. कानूनी दावपेंच थे. बुल्डोजर तभी प्रसिद्धि दिलवा पाएगा जब कानूनी प्रक्रिया को पूरी करते हुए चलेगा और मानवीय मूल्यों का पूरा ध्यान रखेगा. क्योंकि देश का कानून ‘‘सौ अपराधी भले छूट जाएं पर एक निरपराधी को सजा न मिले’’ इस अवधारणा पर चलता है. आम धारणा है कि इसके चलते जन धारणा में जो अपराधी होते हैं उनमें से 90 छूट भी जाते हैं. अधिकांश संदिग्ध ‘‘बेल नियम और जेल अपवाद’’ के चलते अपराध की दुनिया में छुट्टे सांड बने घूमते हैं. कानून और न्यायालय के फैसलोें पर उदासीनता कैसा राजनीतिक कहर बनकर टूटती है यह लाउडस्पीकरों को लेकर चल रही देशव्यापी बहस में देखा जा सकता है. सरकारों का उदासीनता छोड़ कर या तो ध्वनिप्रदूषण कानून और उसके आलोक में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये निर्देशों का सख्ती और निष्पक्षता से पालन करवाना चाहिये या फिर कानून को संशोधित करना चाहिये. साथ ही निर्देशों में संशोधन की अर्जी लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिये. हमारी दृढ मान्यता है कि छोटे छोटे कानूनो के मामूली कहे जाने वाले उल्लंघनों को भी गंभीरता से लेकर तेजी केे साथ अदालतों में ज्यादा तेजी से निपटारा करवा कर अपेक्षाकृत ज्यादा सख्त सजा दिलवानी चाहिये. इससे समाज में कानून के परिपालन का माहौल बनता है और समाज में शांति व्यवस्था बनाए रखने में मदद मिलती है. जैसे सट्टा जुआ, जिस्मफरोशी जैसे अपराध जिसका स्थान, समय, अपराधी, आदि की जानकारी काफी सारे लोगों को होती है और थाने की पुलिस दावा करे कि उसे जानकारी नहीं है तो दाल में काला नहीं सारी दाल ही काली होती है, उसे सख्ती से निपटा जाना चाहिये. यातायात के जो कानून लोग देश में अपनी अकड़ और प्रभाव बताने के लिये तोड़ते हैं वहीं विदेश में जाकर रात के बारह बजे भी सूनी सड़क पर रेड लाइट को अनदेखा कर कानून नहीं तोड़ते हैं क्योंकि वहां इस पर वहां इतना भारी जुर्माना होता है कि नानी याद आ जाती है. यहां तो जुर्माने की रकम कम रखवाने को ही राजनीतिक जीत मान लेते हैं और कानून उल्लंघन के बाद टोकने वाले यातायात कर्मी को धमकाने का बहादुरी. छोटी बड़ी सभी अदालते तारीख पर तारीख और जमानत पर जमानत के कारण मामलों के बढ़ते बौझ से कराह रही हैं पर आत्मावलोकन करने की बजाय सरकार के माथे ठीकरा फोड़कर बच निकलने में ही अपनी योग्यता मानती है. अदालतों से डरी सरकारें, उसके अफसर और कर्मचारी भीगी बिल्ली बने रहते हैं और सही तरीके से प्रतिवाद करने तक से कन्नी काट जाते हैं. कानून का राज कायम करना है तो जरा सख्ती बरतनी होगी. पुलिस और प्रशासन का ‘‘इकबाल’’ कायम करना होगा. इसका यह अर्थ नहीं है कि कानून तोड़ने वालों को समाज या पुलिस खुद ही सजा देने लगे. सजा अदालत ही दे पर इतनी भी देरी न करे कि न्याय अन्याय जैसा लगने लगे. राजनीति जब खालिस्तान जैसी देशविरोधी धारणा को पर्दे के पीछे से समर्थन देती नजर आती है तो दिल कांपने लगता है. लुधियाना में हाल में हुई घटना ऐसा ही संकेत देती नजर आ रही है.