भारत की अपनी अस्मिता है. हम विकासशील देश हों या विकसित देशों की सूची में शामिल हो जाएं, हमारा अपना अस्तित्व तो होगा ही. हमें कोई रिमोट से कैसे चला सकता है. कोई भी देश हमसे ये उम्मीद क्यों करे कि वो जैसा कहे, हम वैसा कहें या करें? हाल में हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर ने दिल्ली में हो रहे रायसीना डायलॉग के दौरान कुछ देशों की गलतफहमी दूर करने का बेहतर प्रयास किया.
विदेश मंत्री ने विभिन्न देशों के विदेशमंत्रियों की मौजूदगी में न केवल भारत के रुख को बेबाकी से सामने रखा, अपितु विकसित यूरोपीय देशों के ढुलमुल रवैये को भी सामने रखने से वे नहीं चूके. इस लिहाज से देखा जाए तो रायसीना डायलॉग के इस सातवें सीजन का समय बहुत महत्वपूर्ण रहा. यह ऐसे समय में हुआ, जब यूक्रेन युद्ध के दुष्परिणाम दुनिया भर में आम लोगों के जीवन को भी प्रभावित कर रहे हैं. ऐसे में स्वाभाविक ही था कि युद्ध पर विभिन्न देशों के स्टैंड को लेकर चलने वाली आपसी रस्साकशी भी इस कार्यक्रम के माध्यम से सार्वजनिक विमर्श की शक्ल में बाहर आ गई. अमेरिका और यूरोपीय देशों का शुरू से आग्रह रहा है कि भारत इस युद्ध पर उनके सुर में सुर मिलाते हुए रूस की खुली निंदा करे. मगर भारत ने राष्ट्रहित और मूल्यों पर आधारित अपनी स्वतंत्र विदेश नीति की परंपरा कायम रखी. उसने तत्काल युद्ध बंद करके शांति स्थापित करने और बातचीत से विवाद सुलझाने की अपील तो की, लेकिन रूस या यूक्रेन से अपने संबंधों पर आंच नहीं आने दी. हम शांति के पक्षधर हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अपने संबंध और अपनी विदेश नीति को एकदम बदलकर किसी के सुर में सुर मिलाने लगें.
इसी संदर्भ में मंगलवार को रायसीना डायलॉग के बातचीत सत्र में कुछ यूरोपीय देशों के विदेश मंत्रियों ने अपने सवालों के माध्यम से भारत को घेरने का प्रयास किया. उसे कटघरे में खड़ा करने की कोशिश भी की गई, तो विदेश मंत्री जयशंकर ने साफ कहा कि जब एशिया में कानून आधारित व्यवस्था पर संकट आया था तो यूरोप से हमें सलाह मिली थी कि और ज्यादा व्यापार करें. हम आपको कम से कम ऐसी सलाह तो नहीं दे रहे. जयशंकर ने नाम भले न लिया हो, उनका स्पष्ट इशारा चीन-भारत सीमा विवाद की ओर था. उन्होंने अफगानिस्तान की घटनाओं का जिक्र करते हुए याद दिलाया कि वहां साल भर पहले एक तरह से पूरी सिविल सोसाइटी को तालिबान के हाथों मरने के लिए छोड़ दिया गया था. स्पष्ट है कि यूक्रेन युद्ध के बहाने भारत को जगाने के नाम पर घेरने की कोशिश कर रहे यूरोपीय देशों को यह बताना जरूरी था कि जागने की जरूरत दरअसल उन्हें है जो एशिया की समस्याओं की ओर से आंखें मूंदे रहते हैं.
भारत के रुख में यह सख्ती न तो अचानक आई है और न ही ऐसा है कि पहली बार रायसीना डायलॉग के मंच पर दिखी. पिछले कुछ हफ्तों से विदेश मंत्री यूरोप को लेकर तीखी टिप्पणियां करते रहे हैं. वॉशिंगटन में उन्होंने पिछले दिनों कहा कि जहां तक रूस से ईंधन लेने का सवाल है तो भारत पूरे महीने भर में उससे जितनी ऊर्जा लेता है, उतनी ऊर्जा यूरोप आधे दिन में ले लेता है. यही नहीं ब्रिटिश विदेश मंत्री के सामने प्रतिबंधों के बारे में उन्होंने कह दिया था कि वे अभियान जैसे लगते हैं. आम तौर पर हम ऐसे तीखेपन से बचते हैं, लेकिन कूटनीति में भी कभी-कभी आइना दिखाना जरूरी हो जाता है.
भारत-चीन सीमा विवाद लंबे समय से चल रहा है. चीन कभी भी हमारी सीमाओं के भीतर अतिक्रमण करने लगता है. सीमा के पास तमाम अंतर्राष्ट्रीय कानून और समझौतों को एक तरफ रखकर सेनाओं को एकत्र करता है. इस मामले में कभी किसी बड़े देश ने हस्तक्षेप तो दूर, बोला तक नहीं. यही कारण है कि आज भारत को अपने बारे में सोचकर निर्णय लेने का मौका है. हमें जितनी जरूरत अमेरिका की है, उससे अधिक आवश्यकता रूस से बेहतर संबंधों की भी है. चीन के व्यवहार को लेकर हमारा रूस से याराना सामयिक ही है. यही कारण है कि पूर्ववर्ती सरकारों ने भी अपनी नीतियों में इसे महत्व दिया. एशिया की परिस्थितियों के लिए हमें आज भले ही पड़ोसियों से दुश्मनी का भाव देखने को मिल रहा हो, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारी उपस्थिति कम नहीं होना चाहिए. विदेश नीति में सामंजस्य और आपसी भाईचारे को तवज्जो दी जाती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि किसी को यह लगे कि हम घुटने टेक रहे हैं. विदेश मंत्री एस जयशंकर का बयान और भारत का स्टैंड समीचीन ही है.