नई विश्व व्यवस्था चाहिये या परिणाम भुगतने को तैयार रहे. (राकेश दुबे, वरिष्ठ पत्रकार भोपाल) 28 अप्रैल.

Category : आजाद अभिव्यक्ति | Sub Category : सभी Posted on 2022-04-28 09:00:13


नई विश्व व्यवस्था चाहिये या परिणाम भुगतने को तैयार रहे. (राकेश दुबे, वरिष्ठ पत्रकार भोपाल) 28 अप्रैल.

विश्व के देश अब तक इस युद्ध का कोई हाल नहीं खोज सके हैं. संयुक्त राष्ट्र बेलगाम महाशक्तियों के सामने बौना साबित हुआ है. आज सवाल यह खड़ा है कि क्या दुनिया को नई विश्व व्यवस्था की ज़रूरत है?
प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध की आग ऐसे ही धीमे-धीमे सुलगी थी. विकासशील देशों की शांति में ख़लल आ रहा है. अपने पड़ोस को देखिए. पाकिस्तान में खस्ता आर्थिक हालात में इमरान खान नियाजी को दुर्दशा झेलनी पड़ी. श्रीलंका के लोगों का जीना दूभर हो चला है. वहां विरोध प्रदर्शनों से निपटने के लिए राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को कुछ समय के लिए आपातकाल लगाना पड़ा. बांग्लादेश में लोग महंगाई के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. नेपाल भी अस्थिर हो रहा है. भारत में खुला असंतोष नहीं है, पर पेट्रो और खाद्य पदार्थों की महंगाई से लोग बेजार हैं. इसके अलावा चीन सीमा पर दो साल से जारी तनातनी यथावत है.
सब जानते हैं कि दूसरे महायुद्ध के बाद दुनिया सही राह पर चले, इसी के लिए संयुक्त राष्ट्र का गठन किया गया था, पर दो विचारधाराओं में वर्चस्व की लड़ाई तब से अब तक जारी है. दुनिया इसे ही शीतयुद्ध के कहती है. पाकिस्तानी मूल के इतिहासकार इश्तियाक अहमद ने लिखा कि मई, 1947 में ब्रिटिश रॉयल आर्मी और रॉयल नेवी के प्रमुखों के साथ जीते-जी किंवदंती बन चुके जनरल मोंटगुमरी ने बैठक की. इस मुलाकात के बाद इन शीर्ष सेनानायकों ने ब्रिटिश नीति-नियंताओं को समझाया कि कांग्रेस के तमाम नेताओं का झुकाव समाजवाद की ओर है. यदि बीच में एक ‘बफर स्टेट’ न बनाया, तो सोवियत संघ का दबदबा अरब और हिंद महासागर की सीमाओं से जा मिलेगा.
बात सही साबित हुई इसी के अनुरूप 1947 में माउंटबेटन ने रेडियो पर विभाजन की घोषणा की और सत्ता-हस्तांतरण का समय पहले खिसकाकर अगस्त, 1947 हुआ. पाकिस्तान तो पैदा होते ही पश्चिम की गोद में जा बैठा था? इससे  उलट भारत ने 1961 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन की घोषणा की उसके बाद ‘इनिशिएटिव’ की घोषणा तक बदस्तूर चलता रहा. इस योजना से नाता जोड़ने के बाद तय हो गया कि पाकिस्तान खुले तौर पर चीन के संरक्षण में चला गया है. बाद में चीनी और रूसी सेना के साथ संयुक्त अभ्यास कर उसने जता दिया कि ब्रिटिश युद्ध नायकों की कुटिल चाल काल-गति का शिकार बन चुकी है.
आज जब इमरान खान अपनी मौजूदा दुर्गति के लिए अमेरिका को कोसते थे, तब रूस इसे ‘शर्मनाक अमेरिकी हरकत’ बताता है. उधर, पश्चिम के मुल्क भारत पर दबाव बनाने की अब भी कोशिश करते हैं कि “रूस से तेल और हथियार खरीदना बंद करें“. अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के सहायक दलीप सिंह नई दिल्ली में ही दुष्परिणाम भुगतने की चेतावनी दे डालते हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन, वाणिज्य सचिव जीना रैमांडो और रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन मीठे शब्दों में इसी भाव को दोहराते हैं, लेकिन भारत अविचलित रहता है. इसके कारणो में पुरानी दोस्ती, कच्चे तेल के दामों में अभूतपूर्व बढ़ोतरी के बाद रियायत बरतने का रूसी प्रस्ताव, आधे से ज्यादा सैन्य सामान के लिए मॉस्को पर निर्भरता और मौजूदा सरकार की दृढ़ता इसकी मुख्य वजहें हैं.
रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव से भारत ने पिछले ही सप्ताह साफ कह दिया था कि भारत किसी के भी दबाव में आने वाला नहीं है. इससे पहले इंग्लैंड की विदेश सचिव या पश्चिमी देशों के अन्य खास नुमाइंदों से मिलने में भारत ने परहेज बरता था. हालांकि, रूस ने संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग से निष्कासन के मामले में भारत को दबाव में लेने की कोशिश की, पर हमने पिछली दस बार की तरह खुद को अलग रखा. नई दिल्ली अगर ‘उनके’ दबाव में नहीं आती, तो भला ‘इनके’ दबाव में क्यों आए?
दूसरी ओर ये अमेरिकी अच्छे दिन नहीं हैं. अमेरिका तमाम संधियों के जरिये दुनिया और खासकर यूरोप को दशकों से अपने शिकंजे में रखता आया है. लोकतंत्र और उदारीकरण के प्रसार के नाम पर इन देशों ने विकासशील और गरीब देशों को तमाम सपने बेचे. परमाणु जखीरों पर ट्रंप के रवैये और नाटो के निरंतर विस्तार ने रूस को राह बदलने पर मजबूर किया. क्रीमिया और सीरिया के आक्रमण इसके उदाहरण हैं. नाटो ने अगर उन्हें वहीं रोकने में सफलता हासिल कर ली होती, तो बात यहां तक बिगड़ती नहीं. आज जो यूक्रेन में हो रहा है, उससे समूची दुनिया के शांति प्रिय देश  बेचैन हैं. यूक्रेन में बूचा में हुए नरसंहार ने इस कसमसाहट को चरम पर पहुंचा दिया है.
अगर स्थिति और अधिक बिगड़ी, तो परिणाम क्या होगा? हर रोज़ विनाश की ओर खिसकता रूस-यूक्रेन युद्ध अगर लंबा खिंचा तो? अभी इस युद्ध ने समूची धरती को दो हिस्सों में बांट दिया है, यही तो तीसरे महायुद्ध के आसार हैं. हक़ीक़त में सोवियत संघ के विघटन के बाद जो निजाम बना था, वह जर्जर हो चुका है. अब एक ही रास्ता बचा है, दुनिया या तो खुले मन से नई विश्व व्यवस्था की संरचना करें या तीसरे विश्वयुद्ध के लिए तैयार रहें.

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