अब समान नागरिक संहिता का निशाने पर. 24 अप्रैल.

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2022-04-24 09:09:19


अब समान नागरिक संहिता का निशाने पर. 24 अप्रैल.

समान नागरिक संहिता लागू करने की बात भारतीय जनता पार्टी को जन्म देने वाली जनसंघ प्रारंभ से ही करती आ रही है. यह लाख टके कर ापरल है कि धारा 370 को समेट देने वाली नरेन्द्र मोदी की  भाजपा सरकार 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले समान नागरिक संहिता लाने की कोशिश करेगी या उसके बाद. क्योंकि यह सवाल संवैधानिक से ज्यादा राजनीतिक प्रभाव वाला है.
उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव के समय भाजपा ने कहा था कि वह सत्ता में वापस आई तो राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करेगी. पुष्करसिंह धामी की अगुआई में भाजपा की शानदार वापसी हुई है तो उन्होंने समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करने के लिये एक कमेटी बना दी. उसी की सिफारिशों पर वहां कानून का प्रारूप बनेगा जिसे धामी सरकार राज्य में लागू करेगी.
पर राजनीति के जानकार मानते हैं कि राज्य को इस प्रकार का अधिकार नहीं है कि वह पर्सनल लॉ को प्रभावित करने वाला कोई भी कानून बना सके. यह केवल केन्द्र सरकार ही संसद के माध्यम से कर सकती है. अदालतों और संसद में केन्द्र सरकार ने जो जवाब दिये हैं उससे यही साफ होता है कि केन्द्र का पलड़ा भारी है. पर्सनल लॉ के मामले में राज्य सरकारें कोई कदम नहीं उठा सकती. जानकार यह स्वीकार करते हैं कि संविधान के भाग 4 का अनुच्छेद 44 राज्य को यह अधिकार देता है. इसका उल्लेख नीति निर्देशक सिद्धांतों में है जिसे लेकर संविधान सभा में यह अपेक्षा की गई थी कि सरकार इसे लागू करने की दिशा में प्रयास करेगी. कानून के जानकार कहते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 44 में राज्य का उल्लेख जरूर है पर इसका आशय केन्द्र और राज्य सरकार दोनों से है.
आजादी के बाद संविधानसभा की बहस  को देखें तो उसमें आजादी के संघर्ष के समय के आदर्शो पर ज्यादा जोर था और ऐसे लोगों को भी जगह मिली थी जो आजादी के पहले तक धार्मिक आधार पर पाकिस्तान बनाने का समर्थन करते थे. लेकिन आजादी के बाद उनका जोर आजादी के पूर्व के धर्मनिरेक्ष रवैये पर जो देश के विभाजन को रोकने में नाकाम रहा था. उनके विचारों के चलते सामाजिक समरसता से ज्यादा ’’विविधता के संरक्षण’’ पर रहा जिसे वे अनेकता  में एकता कहते रहे. यही कारण रहा कि जहां मूल अधिकारों में समानता पर जोर था वहीं अनुच्छेद 25 अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर केन्द्रित हो गया. आजादी के बाद इससे वोटबैंक की राजनीति राजनीति पैदा हुई और जिससे अल्पसंख्यक अधिकारों के संरक्षक के नाम पर समानता की बलि चढ गई. धीरे धीरे अल्पसंख्यक संरक्षण के कानून और नियम-कायदे भी ऐसे ही बने. करीब 70 साल तक बहुमत के आधार पर इसी की बयार चली. बस जनसंध जैसी राजनीतिक पार्टी ही लगातार एक सैद्धांतिक स्टैंड लेकर चलती रही.
पर 2014 में राजनीतिक बयार की दिशा में भारी परिवर्तन हुआ और उसकी का नतीजा भाजपा  की नरेन्द्र मोदी सरकार के तौर पर सामने आया. जनसंघ से भाजपा के सफर में सैद्धांतिक आधारों पर काफी काम हुआ. आरएसएस भी जमीनी स्तर पर इस दिशा में सक्रिय रहा. उसकी नरेन्द्र मोदी को सरकार में लाने में मुख्य भूमिका रही. पहली बार के पांच साल और फिर दूसरी बार के तीन साल मिलाकर आठ साल में मोदी सरकार ने कई काम अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिये किये. या उन वादों के पक्ष में  माहौल बनाने में सहयोग  किया. धारा 370 को खत्म करना ऐसा ही एक ऐसा काम था जिसकी मोदी सरकार के पहले कल्पना तक नहीं की जा रही थी. जबकि संविधान में 370 को अस्थाई कहा गया था पर उसे 70 साल में स्थाई जैसा मान लिया गया था.
अब समान नागरिक संहिता उसी प्रकार का वादा है जैसा धारा 370 की समाप्ति  था. इसलिये इस पर बहस हो रही है. बहस इसलिये ज्यादा है कि इसके संवैघानिक पक्ष मजबूत नजर आते हैं. यह बात और है कि जब मोदी सरकार या किसाी राज्य की सरकार इस दिशा में कदम उठाती है तो वे सुप्रीम कोर्ट में ठहर पाते हैं या नहीं.  
उत्तराखंड ही  नहीं उत्तर प्रदेश भी इस दिशा में बढ़ने का संकल्प बता रहा है. पर गैर भाजपाई राजनीतिक दल और राज्य सरकारें इसके खिलाफ हैं. इससे साफ है कि राजनीतिक विरोध कमजोर नहीं है. आजादी के बाद गंगा में काफी पानी बह चुका है तो संवैधानिक पक्ष भी कमजोर है यह  कहना सही नहीं होगा. होगा क्या यह समय ही बताएगा.
पर हम इस पर विचार विमर्श के लिये ही यह  समझ लें कि यह है क्या और इसके पक्ष विपक्ष में किस तरह की बातें की जा रही हैं.
याद रहे कि 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार बीजेपी ने अपने घोषणापत्र में समान नागरिक संहिता का मुद्दा शामिल किया. 2019 के लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में भी बीजेपी ने इसे अपने घोषणापत्र में शामिल किया. बीजेपी का मानना है कि जब तक समान नागरिक संहिता लागू नहीं की जाती देश में लैंगिंक समानाता नहीं लाई जा सकती.
समान नागरिक संहिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट से लेकर दिल्ली हाईकोर्ट तक सरकार से सवाल कर चुकी है. 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताते हुए कहा था कि समान नागरिक संहिता लागू करने की कोई कोशिश नहीं की गई. पिछले साल जुलाई में दिल्ली हाईकोर्ट ने केन्द्र से कहा था कि समान नागरिक संहिता लागू होना जरूरी है.
 क्या है समान नागकिर संहिता
समान नागरिक संहिता यानी सभी धर्मों के लिए एक ही कानून. अभी होता ये है कि हर धर्म का अपना अलग कानून है और वो उसी हिसाब से चलता है. हिंदुओं के लिए अपना अलग कानून है, जिसमें शादी, तलाक और संपत्तियों से जुड़ी बातें हैं. मुस्लिमों का अलग पर्सनल लॉ है और ईसाइयों को अपना पर्सनल लॉ.
समान नागरिक संहिता का विरोध क्यों
समान नागरिक संहिता का विरोध करने वालों का तर्क है कि अगर ये लागू होता है तो उससे उनके धार्मिक मान्यताओं को मानने का अधिकार छीन जाएगा. समान नागरिक संहिता का सबसे ज्यादा विरोध मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड करता है. उसका कहना है कि इससे समानता नहीं आएगी बल्कि इसे सब पर थोप दिया जाएगा. इससे धार्मिक स्वतंत्रता देने वाले अनुच्छेद 25 के तहत मिले अधिकारों का हनन होगा.
समान नागरिक संहिता के विषय में विधि आयोग के विचार
विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से संबंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु एक विधि आयोग का गठन किया गया. विधि आयोग ने कहा कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूल अधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है. आयोग ने भारतीय बहुलवादी संस्कृति के साथ ही महिला अधिकारों की सर्वाेच्चता के मुद्दे को इंगित किया. पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा की जा रही कार्यवाहियों को ध्यान में रखते हुए विधि आयोग ने कहा कि महिला अधिकारों को वरीयता देना प्रत्येक धर्म और संस्थान का कर्तव्य होना चाहिये. विधि आयोग के विचारानुसार, समाज में असमानता की स्थिति उत्पन्न करने वाली समस्त रुढ़ियों की समीक्षा की जानी चाहिये. इसलिये सभी निजी कानूनी प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध करने की आवश्यकता है जिससे उनसे संबंधित पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी तथ्य सामने आ सकें. वैश्विक स्तर पर प्रचलित मानवाधिकारों की दृष्टिकोण से सर्वमान्य व्यक्तिगत कानूनों को वरीयता मिलनी चाहिये. लड़कों और लड़कियों की विवाह की 18 वर्ष की आयु को न्यूनतम मानक के रूप में तय करने की सिफारिश की गई जिससे समाज में समानता स्थापित की जा सके.
संवैधानिक व्यवस्था
समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 44 में है. इसमें नीति-निर्देश दिया गया है कि समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य होगा.  सर्वाेच्च न्यायालय भी कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में केन्द्र सरकार के विचार जानने की पहल कर चुका है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ४२ वें संशोधन के माध्यम से ‘‘धर्मनिरपेक्षताश्’’ शब्द को प्रविष्ट किया गया. इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान का उद्देश्य भारत के समस्त नागरिकों के साथ धार्मिक आधार पर किसी भी भेदभाव को समाप्त करना है, लेकिन वर्तमान समय तक समान नागरिक संहिता के लागू न हो पाने के कारण भारत में एक बड़ा वर्ग अभी भी धार्मिक कानूनों की वजह से अपने अधिकारों से वंचित है.
मूल अधिकारों में ‘‘विधि के शासन’’ की अवधारणा विद्यमान है, जिसके अनुसार, सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये. लेकिन स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग अपने मूलभूत अधिकारों के लिये संघर्ष कर रहा है. इस प्रकार समान नागरिक संहिता का लागू न होना एक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है.
‘‘सामासिक संस्कृति’’ के सम्मान के नाम पर किसी वर्ग की राजनीतिक समानता का हनन करना संविधान के साथ-साथ संस्कृति और समाज के साथ भी अन्याय है क्योंकि प्रत्येक संस्कृति तथा सभ्यता के मूलभूत नियमों के तहत महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त होता है लेकिन समय के साथ इन नियमों को गलत तरीके से प्रस्तुत कर असमानता उत्पन्न कर दी जाती है.
समान नागरिक संहिता से सम्भावित लाभ
अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है. समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे. सभी के लिए कानून में एक समानता से देश में एकता बढ़ेगी. जिस देश में नागरिकों में एकता होती है, किसी प्रकार वैमनस्य नहीं होता है, वह देश तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ता है. देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति पर भी असर पड़ेगा और राजनीतिक दल वोट बैंक वाली राजनीति नहीं कर सकेंगे और वोटों का ध्रुवीकरण नहीं होगा. ज्ञातव्य है कि सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा शाहबानो मामले में दिये गए निर्णय को तात्कालीन राजीव गांधी सरकार ने धार्मिक दबाव में आकर संसद के कानून के माध्यम से पलट दिया था. समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत की महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा. अभी तो कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित हैं. इतना ही नहीं, महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे.
धार्मिक रुढ़ियों की वजह से समाज के किसी वर्ग के अधिकारों का हनन रोका जाना चाहिये साथ ही ‘‘विधि के समक्ष समता’’ की अवधारणा के तहत सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिये. वैश्वीकरण के वातावरण में महिलाओं की भूमिका समाज में महत्त्वपूर्ण हो गई है, इसलिये उनके अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता में किसी प्रकार की कमी उनके व्यक्तित्त्व तथा समाज के लिये अहितकर है. सर्वाेच्च न्यायालय ने संपत्ति पर समान अधिकार और मंदिर प्रवेश के समान अधिकार जैसे न्यायिक निर्णयों के माध्यम से समाज में समता हेतु उल्लेखनीय प्रयास किया है इसलिये सरकार तथा न्यायालय को समान नागरिक संहिता को लागू करने के समग्र एवं गंभीर प्रयास करने चाहिये.

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