आज देश पर सम्पूर्ण रूप से विचार करें तो यह सवाल सहज रूप से उपस्थित होता है, क्या भारत के कुछ राज्यों की आर्थिक दशा इतनी खराब हो चुकी है कि कर्ज माफी, मुफ्त बिजली, गैस सिलिंडर और कंप्यूटर तथा पेंशन जैसी चुनावी योजनाओं से उनका हाल श्रीलंका जैसा हो सकता है? इसका सीधा उत्तर तो यह है कि आमदनी बढ़ाये बिना अंधाधुंध खर्च करने से किसी भी राज्य का दिवाला निकल सकता है, पर भारतीय राज्यों की दशा अभी इतनी खराब नहीं हुई है और अर्थव्यवस्था भी कुछ ही स्रोतों पर इतनी निर्भर नहीं है कि श्रीलंका जैसा हाल हो सके. कुछ राज्यों की स्थिति खतरे के निशान तक जरूर जा पहुंची है, जिनमें पंजाब, राजस्थान, केरल, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश मुख्य हैं. दूसरा सवाल क्या इनकी इस दशा का प्रभाव भारत की सेहत पर नहीं होगा? इस दूसरी बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता.
वर्तमान में कुछ राज्यों जैसे मध्यप्रदेश जिनके कर्ज निर्धारित सीमा से लगभग दोगुने हो चुके हैं. राजस्व विधेयक समीक्षा समिति के अनुसार केंद्र सरकार का कर्ज जीडीपी के 40 प्रतिशत से और राज्यों का कर्ज उनकी जीडीपी के 20 प्रतिशत से ऊपर नहीं जाना चाहिए. मुद्रा की साख और ऋणदाताओं का भरोसा कायम रखने के लिए वित्तीय संयम और संतुलन रखना जरूरी होता है. केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. रिजर्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्टों के अनुसार, केंद्र सरकार का कर्ज जीडीपी के 60 प्रतिशत से ऊपर जा चुका है और राज्य सरकारों का कर्ज जीडीपी के 30 प्रतिशत से ऊपर चल रहा है.
इस प्रकार कुल राष्ट्रीय कर्ज जीडीपी के 90 प्रतिशत से ऊपर है. फिर भी, श्रीलंका की तुलना में भारत का कर्ज अब भी काफी कम है. कर्ज के बोझ के कारण कर्ज माफ करने, महिलाओं और वृद्धों को पेंशन देने, मुफ्त बिजली देने और सरकारी नौकरियां बढ़ाने जैसी योजनाओं से राज्यों के घाटे और बढ़ सकते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि कोविड दुष्काल और महंगाई की मार से जूझते गरीब लोगों को आर्थिक मदद देने की भी जरूरत है. जिस पर फ़ौरन विचार होना चाहिए।
एक सर्वमान्य सत्य है, बिना मांग के अर्थव्यवस्था की गति तेज नहीं हो सकती. मांग को शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचा बेहतर कर भी बढ़ाया जा सकता है और मुफ्त योजनाओं में पैसा बांट कर भी. राज्य ख़ास तौर पर जिनमें अभी चुनाव हुए हैं या होने जा रहे हैं। बड़े बड़े वादे हुए हैं अथवा किए जा रहे है. यह भी सत्य है इन मदों में पैसा लगाने के लिए बड़ी पूंजी की जरूरत है और प्रभाव दिखता है। बिना सोचे विचारे राज्य इस ओर बढ़ गये हैं या बढ़ने को उतारू हैं.
.देश में एक नयी पद्धति विकसित हो रही है जिसके तहत सरकारें लोकलुभावन योजनाएं लाकर वोट बटोरती हैं, जो आसान है, पर ये अर्थव्यवस्था को श्रीलंका की राह पर भी धकेल सकती हैं. इसका असली हल तो टैक्स नीति के सुधार में छिपा है. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए सरकारों को से कर लगा कर पैसा जुटाने के बजाय उन्हें सामाजिक सुरक्षा कर लगाने के बारे में सोचना चाहिए. अमेरिका और यूरोप से लेकर रूस और चीन तक हर देश में बुनियादी मदों का खर्च ऐसे करों से चलता है. इसी तरह केंद्र सरकार को परोक्ष करों पर निर्भरता कम करते हुए आयकर और लाभांश कर जैसे करों का दायरा बढ़ाना चाहिए. खर्च पर कर लगा कर की उगाही आसान जरूर है, लेकिन इससे मांग घटती है और अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ती है, जबकि आमदनी पर लगने वाले करों से ऐसा कोई दुष्प्रभाव नहीं होता. पूरे देश को एक इकाई मान कर सोचना ज़रूरी है.