जब तक अपराधी का अपराध सर्वोच्च अदालत में साबित नहीं हो जाता तब तक कोई अपराधी नहीं है. इतना ही नहीं सर्वोच्च अदालत भी अनंत बार व्यक्ति को यह अधिकार देती है कि रिवीजन पर रीविजन पिटीशनें लगा कर अपने को निर्दोष साबित करने का उसे पूर्ण हक है. ऐसे कानून का देश में राज है.
लेकिन यह कागज पर है जमीन पर नहीं.
सरकारी जमीन पर कब्जा कर मकान बना कर रहने वालों को तब तक नहीं हटाया जा सकता जब तक अदालत अंतिम रूप से उसे अवैध नहीं मान ले. यह अदालत कभी मानती नहीं है. अदालत में छोटे अपराध में भी अपराधी घोषित करने में पाच सात साल लग जाते हैं. अपराध बड़ा हो तो दस पन्द्रह साल लगना आम बात है.
ऐसे में अपराधी मनोवृति का व्यक्ति अपराध दर अपराध करता जाता है. जमानत पर जमानत लेता जाता है क्योंकि यहां जेल अपवाद है और जमानत अधिकार. अपराधी मनोवृति का आदमी अदालत में सुनवाई आगे न बढ़े इसलिये तारीख पर तारीख लेता जाता है और अदालत उसे देती जाती है. कोई सीमा नहीं. कोई सीमा बता भी दे तो उसे बदलवाने के लिये उंची अदालत में जाकर इसे निष्प्रभावी करवाया जा सकता है.
अदालत सुनवाई जितना कम गति से हो सके उतनी कम गति से आगे बढ़े इसके लिये अपराधी प्रवृति का व्यक्ति सुनवाई के बीच में अर्जी दर अर्जी दायर करता जाता है ताकि पहले उन अर्जियों का निपटारा हो और बाद में सुनवाई आगे बढ़ाने की बात हो.
यह सब कानून की कागजी किताब में लिखा है. उसके चलते कानून अपराधी पर कम प्रभाव डालता है जो कानून टूटने का शिकार बनते हैं उनके मनोबल को तोड़ने उनको बर्बाद करने का साधन ज्यादा बनता है.
इसी आधार पर कहा जाता है कि न्याय में देरी होती है. उस देरी का लाभ उठाने वाले सीना ठोककर गर्व से कहते हैं कि देर से दिया गया न्याय अन्याय के समान है.
ऐसा कानून न माफियाओं को खत्म कर सकता है न भ्रष्टाचार मिटा सकता है. न नागरिकों की इज्जत की रक्षा कर सकता है न जान माल की क्षति को रोक सकता है. न सरकारी संपति की रक्षा कर सकता है. न देशहित साध सकता है.