पाकिस्तान में कितने समय के मेहमान हैं शहबाज शरीफ. 12 अप्रैल.

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2022-04-11 22:27:27


पाकिस्तान में कितने समय के मेहमान हैं शहबाज शरीफ. 12 अप्रैल.

पाकिस्तान में शहबाज शरीफ ने प्रधानमंत्री बनने में कामयाबी पा ली है. पर वहां जो हालात हैं उनमें यह सवाल उठ रहा है कि वह कितने दिन इस कुर्सी पर बैठ पाएंगे? कारण यह है कि जिस तरह से और जिन परिस्थितियों में सत्ता से हटाए गये इमरान खान ने प्रधानमंत्री का पद पाया था उनसे से आज की स्थिति बेहतर होना तो दूर ज्यादा खराब हैं.
इमरान खान की विदाई से एक बार फिर साबित हो गया कि पाकिस्तान में अल्लाह के बाद अगर कोई सबसे ज्यादा  ताकतवर है तो वह पाकिस्तानी सेना है जिससे टकराकर कोई वहां सरकार में नही रह सकता. बाकी विपक्ष तो सिर्फ मोहरा है. अदालत तभी तक ताकतवर है जब तक सेना चाहती है.  
शहवाज ने भले ही इमरान को पटखनी दे दी हो पर इमरान जनता के बीच ज्यादा कमजोर नहीं हुए हैं. उनकी गलत नीतियों और कदमों ने सतरंगी विपक्ष को एक होने और गठबंधन के साथियों को दूर कर दिया हो, पर इमरान पर ऐसा कोई आरोप नहीं है जो उन्हें जनता के बीच कमजोर बनाए. गठबंधन  के साथी सिर्फ सत्ता से दूरी हो जाने के भय से दूर हुए हैं.
इमरान पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों की तरह अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये और सोलह माह पहले कुर्सी खोनी पड़ी. लेकिन उन्होंने जनता के बीच जाकर राजनीतिक लड़ाई लड़ने का आधार और ताकत नहीं खोई है. शहबाज बचे हुए सोलह माह पूरे कर अगले साल जुलाई-अगस्त में तय कार्यक्रम के हिसाब से चुनाव में जाते हैं या समय पूर्व चुनाव करवाने का दाव खेल कर कमजोर नजर आ रहे इमरान पर चोट कर अपनी सरकार की उम्र को बढ़ाएंगे यह तो समय बताएगा. बस यह कहा जा सकता है कि दोनों दाव में जोखिम कम नहीं है.
इमरान ने अपने सभी सांसदों का इस्तीफा करवा कर पीएम पद के लिये लड़ाई का बिगुल फूंक दिया है. शहबाज खान को भानुमति के कुनबे को संभालकर चू-चू का मुरब्बा जैसे मंत्रिमंडल का गठन कर सरकार चलाना है. सिर्फ सत्ता की गोंद ही है जिसने शहबाज को अपने साथियों से जोड़ कर रखा है अन्यथा वे तो एकदम एक दूसरे के कट्टर विरोधी हैं. उनमें हितों का टकराव तय है.
फिर पाकिस्तानी पंजाब के मुख्यमंत्री रहे शहबाज शरीफ के घर में ही लड़ाई कम नहीं है. उनके बड़े भाई और पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ लंदन से आकर क्या गुल खिलाते हैं यह भी तो देखना होगा. शरीफ खुद अपने लिये प्रधानमंत्री की कुर्सी चाहते हैं और वह न मिले तो अपनी बीबी या बेटी में से एक को प्रधानमंत्री का पद दिलवाना चाहेंगे .यह उनकी पुरानी इच्छा है. पूर्व प्रधानमंत्री रही बेनजीर भुट्टो को हत्या के कारण कुर्सी नहीं मिल पाई थी और उनके पति जरदारी जो अपनी कमीशनखोरी के कारण मिस्टर 10 परसेंट के नाम से जाने गये वह अपने बेटे बिलावल भुट्टो को प्रधानमंत्री बनाना चाहेंगे. जिनके बारे में कहा जा रहा है कि शायद उन्हें बिलावल के लिये विदेशमंत्री के पद पर ही संतोष करना पड़े. बिलावल के नाना जुल्फिकार अली भुट्टो भी तो पहले विदेश मंत्री बने थे और बाद में उछलकर उसी पद से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जा बैठे थे. हो सकता है जरदारी भी बिलावल के लिये भी फिलहाल ऐसा ही कुछ सोच रहे हों. इनके अलावा भी फजलुल रहमान सहित कई नेताओं की इस पद के लिये दावेदारी है वे कब तक खामोश रहेंगे.
बात हालात की तो इमरान वंशवादी घरानों की राजनीति और भ्रष्टाचार में डूबी राजनीति और व्यवस्था से छुटकारा दिलाने के नाम पर धरना प्रदर्शन कर सत्ता में आए थे. उनकी सीटें  ज्यादा नहीं थी पर पाकिस्तानी सेना ने उनके लिये शतरंजी चालें चली और प्रधानमंत्री की कुर्सी की पर बिठवा दिया. उसी प्रकार के धरना प्रदर्शनों ने इमरान को राजनीतिक हिसाब से गलत कदम उठाने को बाध्य कर दिया और वह सत्ता गंवा बैठे. क्योंकि सेना भी उनके खिलाफ थी. उन्होंने सेना की इच्छा के खिलाफ जाकर अपनी पसंद के सैन्य अधिकारी को ताकतवर सैन्य खुफिया एजेंसी आईएसआई का मुखिया बनाना चाहा  था पर आखिर में सेना के ही विरोध के आगे झुकना पड़ा और सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा की पसंद के सैन्य अधिकरी को वह पद देना पड़ा. इससे बाजवा नाराज थे. उन्होंने पर्दे के पीछे से इमरान विरोधियों को समर्थन का भरोसा दिया और पर्दे के आगे सेना को हालातों से तटस्थ बनाए रखा. विपक्ष को मैदान में राजनीतिक लड़ाई लड़ने दी और उसे संवैधानिक प्रावधानों के माध्यम से अदालतों का भी भरपूर समर्थन मिला. इमरान ने  अमेरिका द्वारा रचे जा रहे कथित विदेशी षडयंत्र का तुरप का खेला और संसद के उपाध्यक्ष के माध्यम से अविश्वास प्रस्ताव ही नहीं रखने की व्यवस्था करवाने की कोशिश की जिसे सुप्रीम कोर्ट ने विफल कर दिया और तय दिन 9 अप्रैल को ही अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग करवा कर बहुमत तय करनवाने का फर्मान सुना दिया. बहुमत तो इमरान खे ही चुके थे इसलिये उन्होंने संसद का सामना नहीं किया और बाहर आ गये जिससे अविश्वास प्रस्ताव पारित हो गया.
इमराना को सत्ता आधुनिकता में रचे बसे शिक्षित युवाओं के भारी समर्थन के कारण सत्ता  मिली थी. इमरान के  मॉडरेट इस्लाम का वादा किया था जो कट्टर इस्लाम से अलग था जो मार्डन युवाओं को भाया और इस्लामी शासन के समर्थक भी इससे इंकार नहीं कर पाए. इमरान ने कश्मीर को लेकर हर प्रकार  के समर्थन का वादा कर इसके लिये आखिरी सांस हर प्रकार के सहयोग का वादा किया. जो एक तरह से जिहादियों का समर्थन था जो सशस्त्र आतंकवाद का दूसरा नाम बन चुके थे. उनके समर्थन के चक्कर में इमरान आतंकवाद पर निगरानी रखने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था की निगरानी सुची में आकर ग्रे लिस्ट में चले गये. बस तुर्की और चीन के समर्थन के कारण ब्लैक लिस्टेड होने से बचे रहे. इससे पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति का बैंड बज गया. इमरान ने वाला किया था कि वह पांच साल में बीस बिलियन युवाओं को रोजगार देंगे, यह भी वादा था कि पांच साल में पांच बिलियन आवास बनाकर बेघरोंको दिलवाएंगे, महंगाई को काबू में रखेंगे, शांति व्यवस्था को बनाए रखेंगे, बलुचिस्तान और अन्य सीमावर्ती इलाकों में दहशतगर्दो पर सख्त कार्यवाही कर उनको काबू में रखेंगे. ऐसा वह कुछ नहीं कर पाए. बल्कि बदहवासी यूक्रेन की यु़द्ध के बाद भी अमेरिका और सेना की इच्छा के खिलाफ रूस का दौरा कर आए. एक के बाद एक गलत कदम उठाए तो सत्ता तो जानी ही थी.
आज हालात क्या हैं. पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार खाली है. आर्थिक दबाव बहुत ज्यादा हैं. बाहरी कर्जे और देनदारियां करीब  91 बिलियन डालर की हैं जो जीडीपी का 31 प्रतिशत है. वह एक तरह के कर्जे के जाल में फंसे हैं जिसके चलते कर्जो का ब्याज और किस्तें चुकाने के लिये कर्जा लेना पड़ रहा है. जो कर्जा सरकार चलाने के नाम पर लेते हैं उसमें से आधे से ज्यादा हिस्सा पहले से लदे कर्जे के ब्याज और किश्तों चला जाता है.
सेना की कमान उमर जावेद बाजवा के हाथों में है जिन्होंने सत्ता से दूरी बनाए रखने का नाटक अब तक कुशलता पूर्वक खेला है. उनका कार्यकाल भी इसी साल नवंबर में खत्म हो रहा है. उसके बाद उन्हें ही शहबाज दोहराएंगे या नये सेनाध्यक्ष बनाए जाएंगे यह देखना होगा. नये सेनाध्यक्ष भी क्या बाजवा जैसे ही नाटक को जारी रखेंगे या कुछ और करेंगे यह तो अभी कहा नहीं जा सकता है. ऐस में  शहबाज कब तक सत्ता चला पाएंगे. देश के हालातों को काबू में रख पाएंगे यह तो समय बताएगा.
सेना हो या अर्थशास्त्री पाकिस्तान की आर्थिक दशा सुधारने के लिये भारत के साथ व्यापार और सामान्य संबंधों की बहाली का सुझाव देते हैं. पर  मोदी सरकार है जो साफ शब्दों में कहती है कि आतंकवाद और व्यापार एक साथ नहीं चल सकते. आतंकवाद के चलते संबंध सामान्य नहीं हो सकते. और कश्मीर राग के जाल में फंसे पाकिस्तान मेें कोई भी सरकार आतंकवाद को समर्थन दिये बगैर चल नहीं सकती. क्योंकि पाकिस्तान के हिसाब से कश्मीर की लड़ाई वह आतंकवाद को फलने फूलने का मौका दिये बगैर लड़ नहीं  सकता. भारत पाक संबंधों के लिहाज से हालात न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी जैसे हैं.
पड़ोसी बदले नहीं जा सकते इसलिये पड़ोसी यानि पाकिस्तान से संबंध सामान्य करो, क्रिकेट खेलने दो, कलाकारों को आने जाने दो, आपसी व्यापार होने दो, पाकिस्तान की सरकार न सही वहां की जनता तो भारत के साथ है आदि जुमलों के साथ पाकिस्तानी नेता और पत्रकार और बुद्धिजीवी समय काटते रहेंगे. भारत में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है यह बात और है कि मोदी सरकार के सख्त रवैये के कारण वे बिलबिला भले ही रहे हो पर डर के मारे बिलों में घुसे हुए हैं क्योंकि मोदी सरकार के लिये ऐसे लोगों के लिये सुरक्षित जगह जेलों में है. कह सकते हैं कि फिलहाल भारत पाकिस्तान के संबंध सामान्य होने के कोई आसार  नहीं हैं.
ऐसे में एक बार फिर यही कह कर कि शहबाज शरीफ के लिये आगे का रास्ता कांटों से भरा है, वह कब तक इस राह पर चलते रहेंगे यह तो समय ही बताएगा, के साथ अपनी बात खत्म करते हैं. .    

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