राजनीति में आ तो कोई भी सकता है. लोकप्रियता के आधार पर उसे टिकट, मंत्रिपद या संगठन में पद भी मिल जाते हैं, परंतु राजनीति में उसकी सफलता की कोई गारंटी नहीं है. कई बार तो अधिक लोकप्रियता ही उसकी असफलता की इबारत लिख देती है. कई फिल्मी सितारों ने तो सफलता के मुकाम हासिल कर लिए, लेकिन खिलाडिय़ों को राजनीति में बहुत सफलता नहीं मिल सकी है. हाल में कुर्सी से बेदखल हुए इमरान खान और पंजाब के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू इसमें ताजा चर्चित चेहरे हैं.
पाकिस्तान में इमरान खान कुर्सी बचाने में सफल नहीं हो सके, वहीं भारत में तो नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब चुनावों में करारी हार के बाद कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष का पद छोडऩा ही पड़ा. हालांकि पाकिस्तान और पंजाब के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य और परिदृश्य में जमीन-आसमान का अंतर है, परंतु क्रिकेटर से नेता बने इन दोनों के उत्थान-पतन में कई समानताएं भी दिखी हैं.
इमरान वर्ष 2018 में एक ऐसे करिश्माई और प्रेरक नायक की तरह सत्ता में आए, जिन्होंने वंशवाद और भ्रष्ट कुलीनों के वर्चस्व को तोडक़र एक ‘नया पाकिस्तान’ बनाने का वायदा किया था. परम्परागत राजनीति से ऊब चुके पाकिस्तानियों ने उन्हें लीक से हटकर चलने वाला नेता माना था. यही नहीं वह फौज के चहेते भी माने जाते थे. पाकिस्तान में सत्ता के लिए सेना का समर्थन आवश्यक है. ऐसा लगा जैसे इमरान के पास अवाम की गुडविल भी थी और फौज का सपोर्ट भी.
दूसरी तरफ सिद्धू को भी कांग्रेस के प्रथम परिवार के समर्थन से पंजाब में कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया था. प्रियंका वाड्रा के साथ सिद्धू की तस्वीरों को प्रथम परिवार के साथ उनकी निकटता दिखाने के लिए खूब प्रसारित किया गया. इमरान की ही तरह सिद्धू भी लोकप्रियता के कई पायदान चढ़ चुके थे. क्रिकेटर के साथ ही वह कामेडी शो में भी महत्वपूर्ण जगह बना चुके थे. ऐसा लगा कि वह पंजाब की परिवारवादी, पैसों के बल पर चलने वाली राजनीति में बदलाव ला सकते थे. उनकी सभाओं में भीड़ उमड़ती थी. उन्हें भविष्य के चेहरे की तरह देखा जा रहा था.
कुछ माह पूर्व तक वे तेजी से उभर रहे थे, लग रहा था उन्हें कोई रोक नहीं सकेगा. फिर ऐसा क्या हुआ कि इन दोनों की स्टार वैल्यू और भ्रष्टाचार-विरोधी योद्धा की छवि काम नहीं आई? इसका छोटा-सा उत्तर तो यही हो सकता है कि राजनीति क्रिकेट का मैदान नहीं होती. इसमें जीत के तयशुदा नियम नहीं होते. क्रिकेट में सितारा खिलाड़ी नेतृत्व कर सकता है और अपनी निजी क्षमताओं का उपयोग करके चीजें बदल सकता है, लेकिन राजनीति इससे कहीं पेचीदा है. दुनिया में लोकप्रिय नेताओं के उदय से मुख्यधारा की राजनीति में नए चेहरे और ताजा तौर-तरीके जरूर सामने आए हैं, लेकिन समस्या यह है कि ऐसे में एक व्यक्ति की नाकामी पूरे तंत्र पर भारी पड़ जाती है.
उदाहरण है पाकिस्तान और पंजाब. पंजाब में सिद्धू के कारण पहले तो मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस को अलविदा कह दिया. इसके बाद नए मुख्यमंत्री से भी उनका पंगा हुआ तो पूरी जनता ने भाजपा के विकल्प के रूप में आम आदमी पार्टी को ही चुन लिया. सिद्धू पूर्व में भाजपा के सांसद रह चुके हैं. अचानक उन्होंने पाला बदला और कांग्रेस का हाथ थाम लिया. उनकी पत्नी पंजाब में मंत्री रहीं. इसके बाद भी मन नहीं भरा और उनकी राजनीतिक पदलिप्सा बढ़ती चली गई. इतनी कि वे यह मानने लगे कि उनसे बेहतर पंजाब का मुख्यमंत्री कोई हो ही नहीं सकता. लेकिन वह न तो मुख्यमंत्री पद पा सके और न ही संगठन के अध्यक्ष के रूप में ईमानदारी से अपनी भूमिका का निर्वहन ही कर पाए. अपने ही मुख्यमंत्री के खिलाफ मोर्चा खोलकर उन्होंने राजनीतिक अतिमहत्वाकांक्षा का प्रदर्शन किया और धड़ाम से खुद भी नीचे आ गए, पार्टी को भी खाई में धकेल दिया. यहां कांग्रेस हाईकमान के लगातार गलत निर्णय की बात भी सामने आती है. केवल अपने संबंध होना ही पर्याप्त नहीं होता, यदि राजनीति में नेतृत्व संभालना है, या किसी को संभालने के लिए पाबंद करना है, तो उसमें नेतृत्व क्षमता भी होना चाहिए. संवेदनशीलता, सहनशीलता और सबसे बड़ी बात यह है कि उसे राजनीति की बारहखड़ी भी आना चाहिए. सिद्धू ने हर मुद्दे को मजाक में लिया और पूरी पार्टी को ले डूबे.
इमरान का किस्सा भी सामने है. केवल भारत का विरोध, कश्मीर की रट तो हर पाकिस्तानी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री की होती है, लेकिन इमरान तो किसी भी मोर्चे पर सफलता हासिल नहीं कर पाए. सेना प्रधान बाजवा से पहले उनके रिश्ते बेहतर रहे, लेकिन बाद में बिगड़ गए. इमरान न तो देश के अंदर कुछ कर पाए और न ही विदेशनीति में उन्हें कोई सफलता मिली. हां, अपनी एक पत्नी के कथित तंत्र-मंत्र, जादू-टोने के चलते उनकी आलोचना अधिक हुई. इमरान क्रिकेट में जितने सफल हुए, राजनीति में उतने ही असफल. कुल मिलाकर उनके साथ क्रिकेट सितारों की राजनीतिक असफलता का इतिहास लिख गया.