भारत नहीं होगा श्रीलंका जैसा दिवालिया. 9 अप्रैल.

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2022-04-09 02:24:29


भारत नहीं होगा श्रीलंका जैसा दिवालिया. 9 अप्रैल.

श्रीलंका की हालत खराब हे. वहां की जनता त्राहि त्राहि कर रही है. भागकर कई तो भारत में आ रहे हैं. भारत का श्रीलंका से रिश्ता ऐतिहासिक है. इसलिये भारत सरकार आगे बढ़कर श्रीलंका की मदद कर रही है. वहां की जनता भी इसे सराह  रही है. भारत की जनता भी इससे खुशी महसूस कर रही है कि भारत सरकार अपनी भूमिका सही तरीके से निभा रही है.
पर मीडिया का एक  तबका है जो श्रीलंका को दिखा दिख कर कह रहा है मोदीजी और भाजपा जो योजनाएं गरीबों के कल्याण के नाम पर चला रही हें. वे भारत को श्रीलंका जैसा दिवालिया बना सकती हैं. इस मीडिया को मोदीजी से कुछ ऐसी दुश्मनी है कि वह यह तक भूल जाता है कि उसके इस प्रकार के कृत्यों को एक हद तक देशद्रोह की श्रेणी में सरकार न सही पर जनता का एक बड़ा तबका मान रहा है. आगे बढ़ने से पहले यह भी बताते चले की मीडिया का एक तबका मोदीजी के केन्द्र में आने के पहले से भी भारत की देश विदेश में छवि बिगाड़ने के काम में लगा है उसे वह पत्रकारिता कहता है. इसमें अंग्रेजी मीडिया और उससे निकले पत्रकार सबसे आगे हैं. वे कभी बताते हैं की मानवीय गरीमा और कल्याण के अंतर्राष्ट्रीय मानकों के आधार पर भारत कभी युगांडा तो कभी कीनिया से भी पीछे है. यहां तक कि बंगलादेश  और भूटान से भी पीछे बता कर ऐसा नेरेटिव गढ़ते रहे हैं मानों वे मानवता के लिये बड़ा काम कर रहे हैं. वे भूल जाते हैं कि भारत कितना विशाल देश है. उसकी कितनी विशाल जनसंख्या है. संसाधनों की कमी है. आदि आदि. ऐसे में भारत सरकारें जो भी कर पा रही हैं वह कम नहीं है. हां उसमें भ्रष्टाचार और अकुशलता आदि के कारण अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाते हैं. यदि इन पर रोक होती तो परिणाम निश्चित ही और बेहतर होते.
अब बात इसकी कि भारत की हालत ऐसी होने की आशंका क्यों नहीं है.
श्रीलंका में राजपक्षे के परिवार की सरकार थी सभी अहम पदों पर उन्हीं के परिवार के लोग बैठे थे. नतीजन जो भी फैसले लिये गये उन पर ज्यादा विचार विमर्श नहीं हुआ. फिर चीन चालों में राजपक्षे परिवार फंसा था. लोग इसको लेकर भ्रष्टाचार की बात भी करते हैं. इसमें फंसकर भी गलत फैसले लिये गये.
अब बात करें गलत फैसलों की. तो पहले चीन के प्रभाव में लिये गये गलत  फैसलों की
 सबसे गलत फैसला था श्रीलंका के दक्षिण में भारत के नजदीकी और कोलंबों बंदरगाह के समीप ही स्थित हंबनटोटा बंदरगाह के विकसित करने का. यह एक इतना गलत फैसला था कि जब यह प्रस्ताव आया तो श्रीलंका ने भारत से इसके लिये सहयोग मांगा. तब भारत ने इसे आर्थिक नजरिये ने अनुपयोगी बता कर श्रीलंका को सलाह दी कि वह इस पर आगे नहीं बढ़े. पर श्रीलंका तो चीन की चालों में फंसा था. उसकी चालों में ही फंसकर श्रीलंका ने पहले भारत को पूछा. भारत का उत्तर चीन की अपेक्षा के अनुरूप ही था. तब चीन ने चालें चल  कर भारी कर्जा देकर इसका विकास किया. यह ऐसा बंदरगाह था जिस पर दिनभर में एक जहाज तक नियमित नहीं आता था. आता भी क्यों जब कोलंबो बंदरगाह पास था. उस पर ज्यादा सुविधाएं थी और कोई परेशानी भी नहीं थी. फिर चीन ने राजपक्षे के संसदीय क्षेत्र तथा उनकी पार्टी और परिवार के लोगों के संसदीय क्षेत्रों में भी विकास के नाम पर भारी कर्जे देकर उनमें विकास कार्य करे. इससे श्रीलंका पर कर्जा इतना बढ़ा कि उसकी कर्जा चुकाने की आर्थिक हैसियत तक नहीं बची. नतीजन उसे इस बंदरगाह हो चीन को ही 99 साल ही लीज पर देना पड़ा. इसके सैन्य उपयोग ने श्रीलंका के पुराने मित्र भारत की सुरक्षा क े लिये खतरे ही बढ़ाए.
फिर श्रीलंका को धान रबर, आदि की खेती का बड़ा सहारा था. लेकिन कर्जो की किश्तों और व्याज के बौझ में फंसे श्रीलंका को उल्टी पट्टी पढ़ाकर वहां रसायनिक उरर्वकों तथा कीटनाशकों  पर यह कह कर रोक लगवा दी कि हम आर्गेनिक फार्मिंग करेंगे तो हमारी उपज ज्यादा दामों पर बिकेगी. नतीजा यह निकला कि श्रीलंका की कृषि उपज गिर गई क्योंकि आर्गेनिक में तो ऐसा होना ही था. यही नहीं रसायनिक  कीटनाशकों के उपलब्ध नहीं होने के कारण कीटों के प्रकोप से भी फसलों का बड़ा भाग खराब हो गया. इससे अनाज आदि को लेकर त्राहि त्राहि मच गई.
श्रीलंका की आय का बड़ा साधन पर्यटन था. कृषि थी और कुछ उद्योग धंधे थे. लेकिन उद्योग घंधों पर समय रहते ध्यान नहीं दिया क्योंकि कृषि और पर्यटन से ही काफी आय हो रही थी.
सही नहीं पर्यटन पर निर्भरता तो श्रीलंका की थी ही. उसे और बढ़ाने के नाम पर करों को खासकर आयकर को घटाया गया. कहा गया कि कर कम होगें तो ज्यादा पर्यटक आएंगे. उससे आय की सारी कमियों की पूर्ति हो जाएगी. आयकर की तो ऐसी दशा कर दी कि श्रीलंका में जहां आयकर में छूट पांच श्रीलंकाई रूपया थी उसे बढ़ा कर तीस लाख रूपया कर दिया. इससे आयकर से होने वाली आय पर भी भारी मार पड़ी और वह कम हो गई.
इसके बाद आई विश्वव्यापी कोरोना की मार. इससे अन्य देशों की तरह श्रीलंका का पर्यटन भी एकतरह से खत्म हो गया. काम धंघों की स्थिति और खराब हुई. बेरोजगारी फैली और लोगों की आय कम हुई.
श्रीलंका  की आय का बड़ा हिस्सा विदेशों में काम कर रहे श्रीलंका के नागरिकों द्वारा भेजे जाने वाले पैसा भी था.  पर कोरोना की मार  में वह भी काफी कम हो गया.
बची खुची कमी रूस के यूक्रेन  पर हुए हमले ने पूरी कर दी. पैट्रोल, डीजल और पैट्रोलियम पदार्थो की महंगाई ने सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी तो पहले से ही बर्बाद श्रीलंका की हालत तो बेहाल होनी ही थी.  सामानों की महंगाई आसमान छूने से भी उपर चली गई. फिर उनकी भीषण कमी थी. लोगों का आना जाना घर चलाना मुश्किल हो गया. लोग खरीद नहीं पा रहे थे. जो खरीद सकते थे उनके लिये भी जरूरी चीजों पाना कठिन हो रहा था.
ऐस में भारत मदद को आया यह बात अलग से फिर कभी पर अभी इस बात पर कि भारत क्यों नहीं श्रीलंका  की तरह दिवालिया हो सकता है.
भारत में संयोग और  सौभाग्य से देश की कमान नरेन्द्र मोदी के हाथ में है. जो अपनी दृढता के लिये जाने जाते हैं. फिर भाजपा का राज है जो आर्थिक मामलों में जरा ज्यादा ही सतर्क रहती है.  
कोरोना का प्रकोप आते ही दूरदर्शी नरेन्द्र मोदी ने लॉकडाउन जैसा सख्त कदम एकदम तेजी से उठाया. इस पर खूब शोर मचा कि पहले इसके लिये तैयारी की जानी चाहिये थी. जनता को समझा कर तैयार करना था. पर मोदीजी ने किसी की नहीं सुनी और लॉकडाउन पर अड़े रहे.
पहली चितां गरीबों की. प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अनाज योजना शुरू की. ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना पर जोर देकर केजरीवाल ने दिल्ली से और उद्धव ठाकरे ने मुंबई से मजदूरों को भगाया. उनमें  सबसे ज्यादा उत्तरप्रदेश और बिहार के थे. जहां भाजपा की राज्य सरकारें थी. पर उत्तरप्रदेश करीब था और योगीजी के पास कमान थी. उन्होंने तेजी से काम किया और कुछ दिनों की भयंकर त्रासदी के बाद ही उस  पर काबू पा लिया. बिहार ने भी उतना अच्छा न सही पर काफी काम  किया. गुजरात, मध्यप्रदेश, झारखंड और राजस्थान के मजदूर थे. वहां की सरकारों ने भी हालात को अपने ढ़ंग से संभाला.
इस बीच मोदीजी ने कोरोना वैक्सीन पर युद्धस्तर पर काम किया. सबसे पहले जिन देशों की वैक्सीन आई उनमें भारत भी था. देश भर में वैक्सीकरण कर रिकार्ड बनाए.  इस बीच मोदी विरोधी मीडिया, नेताओं और पश्चिमी देशों से प्रभावित अर्थशास्त्रियों ने बार बार कहा कि कोरोना पीड़ितों की जेब में पैसा डालो. खूब प्रचार किया गया कि अमेरिका, ब्रिटेन आदि कितनी बड़ी बड़ी रकमें डाल रहे हैं. पर मोदीजी नहीं डिगे. विरोध सहा ओर बहुत छोटी छोटी रकमें ही दी.
यहां यह कहा जा सकता है कि यदि मोदीजी बड़ी रकमों की सलाह देने वालों के दबाव में आ जाते तो भारत निश्चित ही श्रीलंका की वर्तमान राह की ओर कदम  बढ़ा चुका होता पर मोदीजी ने ऐसा नहीं होने दिया.
गरीबों का पेट काफी हद तक भरता रहा. वैक्सीनेशन भी चला. जिसका राजनीतिक आधार पर विरोध तक  हुआ. जब दूसरी लहर आई तो आक्सीजन की कमी का कहर टूटा. हालांकि कोरोना की पहली लहर के समय ही आक्सीजन के संकट पर सोचा गया था आक्सीजन प्लांटों के लिये राज्यों को पैसा दिया गया.  आक्सीजन की मशीने भी दी गई. पर फालोअप में कमी रही. इसकी सजा तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने आगे जाकर पद खोकर चुकाई भी.
आक्सीजन की कमी दूर करने के लिये मोदी जी ने फिर देश विदेश से टैंकर मंगवाकर रिकार्ड बनाए. हवाई जहाजों से आक्सीजन कंटेनर मंगावाए, राज्यों में भिजवाए.  आक्सीजन की कमी मार गहरी थी उस पर राज्यों में अव्यवस्था थी इसका ठीकरा भी केन्द्र के सिर फोड़ा. तब भी मोदीजी ने धैर्य नहीं खोया और काम में लगे रहे. कोरोना का दूसरा दौर भी निकला तो फिर उद्योगों और दूसरों को झोली भर भर कर पैसा बांटने की मांगे की जाने लगी. पर तब भी मोदीजी ने संयम नहीं खोया और अपनी क्षमता भर सहायता दी. उसके लिये अलग अलग योजनाएं बनाई गई.
यहां एक बार फिर कहा जा सकता है कि मोदीजी ने संयम नहीं खोया और खजाना लुटाने की मांगों की अनदेखी की. अगर वह दबाव में आ जाते तो फिर भारत भी श्रीलंका जैसी स्थिति की ओर कदम बढ़ा देता पर मोदी जी ने ऐसा नहीं होने दिया.
अब धीरे धीरे स्थिति में सुधार आ रहा है तो अब प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना, रसोई गैस देने की उज्जवला योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, प्रधानमंत्री सड़क योजनाओं को बेहिसाब पैसा लुटाने की योजनाएं बता कर मोदी सरकार की आलोचनाए की जा रही हैं और कहा जा रहा है कि इनसे देश को धीरे धीरे श्रीलंगा जैसी दिवालिया स्थिति की ओर धकेला जा रहा है.
जबकि सच्चाई इसके विपरीत है. भारत लोककल्याणकारी देश है तो करीब कल्याण योजनाओं को फिजूलखर्ची कैसे कहा जा सकता है.
फिर जैसे पूर्व में कहा गया  कि मोदीजी और भाजपा की आर्थिक नजर काफी सोची विचारी है. वह भ्रष्टाचार और  फिजूलखर्ची की हमेशा विरोधी रही है. जनधन खातों और डायरेक्ट बेनिफिट स्कीमों से यह काम किया गया है.
उदाहरण देकर कहना चाहूंगा कि मोदीजी की नजर न  केवल गरीब कल्याण पर रहती है बल्कि उसके आगे भी देखती है. इसका उदाहरण गरीब कल्याण अनाज योजना है. इसे जरा विस्तार से देखिये.
फूड कारपोरेशन गेंहूं और धान की इतनी ज्यादा खरीद करता है कि उसका बड़ा भाग तो सड़ जाता है. उस पर समय समय पर हल्ला मचता रहा है. मामले सुप्रीम कोर्ट तक में गये. एक समय तो ऐसा था  कि जब सुप्रीम कोर्ट ने पूछ ही लिया  कि  जनता की गाढ़ी कमाई से खरीदे गये गेंहूं और चावल को आप सड़ने से  नहीं बचा सकते तो गरीबों को फ्री में बांट क्यों नहीं देते. पर आडिट आदि के डर से केन्द्र सरकार ने इस पर सहमति नहीं दी. अब मोदीजी ने सकंट को अवसर में बदला और योजना बना कर सीमित और निश्चित मात्रा में फ्री गेंहूं चावल दाल नमक तक देना शुरू कर दिया. इससे भंडारों पर बौझा भी कम हुआ और सुप्रीम कोर्ट की मंशा भी पूरी हो गई. हितग्राही वोट बैंक बना सो अलग से.
इसलिये जनाब कितना ही दुष्प्रचार कर लो. भारत को मोदीजी श्रीलंका जैसा दिवालिया नहीं बनने देंगे तय मानकर चलिये. 

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