धर्म के नाम पर विभाजन हुआ. जिस धर्म को एतराज था उसके सारे लोग उस देश में नहीं गये जो उनके लिए बनाया गया था. काफी सारे बच गए, तो कुछ बचाए गये. कुछ विभाजन 2 के लिए सोच समझ कर रुक गये. देश को धर्मनिरपेक्ष कहा गया. पर ढ़ेरों संविधानों से जो एक अहम बिंदु निकला उसने अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की बात की. एक और बिंदु हिंदू धर्म में जाति के आधार पर सदियों के शोषण और अत्याचार भी केन्द्र में आया. जाति व्यवस्था हिंदूधर्म में थी तो इस धर्म के दलितों के लिए आरक्षण लाया गया. जंगलों रहने वाले वनवासियों में पिछड़ापन और गरीबी भयावह थी तो उनके लिए भी अलग से आरक्षण रखा गया. इसमें जाति और धर्म का पक्ष कमजोर रहा. जब अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का सवाल आया धर्म मजबूत आधार था. तब हिंदू बहुसंख्यक और मौटेतौर पर मुसलमान अल्पसंख्यक माने गये. आजादी के बाद से ही धर्मनिरपेक्षता का जादू सिर पर सवार था तो आपातकाल में संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द भी कुछ और शब्दों के साथ जोड़ा गया. पिछड़ेपन के कारण विकास में भागीदारी पर जोर था तो ओबीसी को आरक्षण देकर रायता फैलाया. बची खुची कसर थी तो केन्द्र सरकार ने आदेश जारी कर धर्म के आधार पर मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों, बौद्धों और पारसियों को अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया. वोटों के चक्कर में जैन भी जोड़ लिए. भाषाई अल्पसंख्यक की व्यवस्था संविधान में शुरु से थी. कुछ कमी थी तो केन्द्र ने अपने अल्पसंख्यक आरक्षण के कानून को समवर्ती सूची में डाल दिया. अब केन्द्र के साथ राज्य भी धार्मिक और भाषाई आधार पर अल्पसंख्यक तय कर सकते हैं. अब बात उठ रही है नियम भले ही राज्य बनाए पर आधार राज्य को नहीं जिलों को बनाओ. कहां तक बांटेंगे हम.
जहां केन्द्र और राज्य दोनों ने कानून बनाए हों तो केन्द्रीय कानून मान्य रहेगा. अब जरा हास्यास्पद स्थिति देखिये जम्मू कश्मीर में केन्द्र के कानून से मुसलमान अल्पसंख्यक हैं. यह दर्जा बदल नहीं सकता. संख्या के हिसाब से हिंदू अल्पसंख्यक हैं. वहां की सरकार जब चाहेगी हिंदुओं को अल्पसंख्यक घोषित कर देगी. तब बचेगा कौन जो बहुसंख्यक कहलाएगा. जब सभी को अल्पसंख्यक के लाभ मिलने हैं तो विशेष ध्यान और लाभ का क्या होगा.
यह विरोधाभास उन सभी दस राज्यों में नजर आएगा जहां केंद्र की सूची के अल्पसंख्यक संख्या में बहुसंख्यक होंगे.
मैंने सिर्फ वे बातें रखी हैं जो सिर्फ तथ्य हैं जिनकी व्याख्या सब अपने अपने नजरिए से करने के लिए आजाद हैं.
यह सब वोटबैंक के लिए राजनीतिक नेताओं ने किया है. कैसे सुलझेगी पहेलियां.
नहीं सुलझेंगी. क्योंकि हिंदुस्तान की कानून की किताबों मे कोई ऐसा कानून नहीं है जिसे काटने वाला कानून उन्हीं किताबों में न छिपा हो. कानून नहीं होगा तो कानून की तरह मान्य बड़ी अदालतों का फैसला होगा.
कानूनों के इस जंगल के रहते हुए भी देश अगर कानून के मुताबिक चल रहा है तो केवल इसलिए की ईश्वर नाम की अदृश्य शक्ति है जो देश को चला कर अपने अस्तित्व को साबित कर रही है.