पंच से प्रपंच परमेश्वर तक. (प्रकाश भटनागर वरिष्ठ पत्रकार भोपाल). 31 मार्च.

Category : आजाद अभिव्यक्ति | Sub Category : सभी Posted on 2022-03-31 07:49:46


पंच से प्रपंच परमेश्वर तक. (प्रकाश भटनागर वरिष्ठ पत्रकार भोपाल). 31 मार्च.

‘‘झुकी हुई कमर’’, ‘‘पोपला मुंह’’ और ‘‘सन-के-से बाल’’ ये तीन पहचान मुंशी प्रेमचंद ने अपनी कहानी ‘‘पंच परमेश्वर’’ के बूढ़ी खाला यानी मौसी वाले चरित्र के लिए गिनाई थीं. इन में से किसी भी चिन्ह का पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से कोई साम्य नहीं है. वह शरीर सहित हृदय तथा मस्तिष्क से पूर्णतरू चुस्त-दुरुस्त हैं. तो फिर मौसी और दीदी का एक साथ जिक्र एक साथ क्यों? है न इसका जवाब.                            
दरअसल, प्रेमचंद की मौसी जिस अंदाज में पंचों को एकजुट करने के लिए दिन-रात लकड़ी टेकती गांव-गांव दौड़ती रही थी, बनर्जी भी उसी तरह लंबे समय से विपक्षी एकता के लिए इधर से उधर दौड़ लगा रही हैं. ताकि भारतीय जनता पार्टी को कमजोर किया जा सके. मोदी को हराया जा सके. ममता के हाथ में लकड़ी नहीं है, बल्कि वह ‘‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’’ का यथार्थ स्वरूप और सत्य हैं. एक बार फिर भाजपा के खिलाफ लामबंदी की जो कोशिश ममता ने की है, वह नजरंदाज नहीं की जा सकती है. ऐसी ही कोशिश तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर भी कर रहे हैं. वामपंथियों के जमाने से रक्तरंजित राजनीति के पर्याय पश्चिम बंगाल में ममता ने अनेक बार अपनी जान पर संकट झेलकर वामपंथी शासन के अंत में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. हालांकि ममता के नेतृत्व में भी पश्चिम बंगाल की राजनीति अभी भी खून से ही सनी है.
फिर भी यह ममता की जुझारू प्रवृत्ति की ही दोहरी सफलता रही कि अपने राज्य में उन्होंने कांग्रेस और वामपंथियों को लगभग खत्म कर दिया है. कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इसकी शिकायत तक नहीं कर पा रहा. ममता की शक्ति ही है कि वह पश्चिम बंगाल में भाजपा के कमल की पंखुड़ियों को पूरी तरह खिलने से रोक पाईं. तो मात्र दौड़-धूप और जुझारू तबीयत के चलते प्रेमचंद की खाला से साम्य रखने वाली ममता की इस ताजा मुहिम का क्या असर होता दिख सकता है? उनकी नजर वर्ष 2024 के आम चुनाव पर है. इस नजर के नजरिये से ही ममता की इस राह में सवालों और संशयों के कांटे बिछने शुरू हो जाते हैं. उन्होंने क्षेत्रीय दलों के ताकतवर मुख्यमंत्रियों और विपक्षी नेताओं को चिट्ठी लिख कर अपनी ताजा कोशिशों को परवान चढ़ाया है.                                                                                                                                                                      
 बात अतीत से शुरू करें, या वर्तमान से, मामला आसान नहीं दिखता. क्या बनर्जी देश के राजनीतिक इतिहास के उजले और प्रबलतम अध्याय ‘‘संपूर्ण क्रांति’’ वाले किसी और जयप्रकाश नारायण को सामने ला सकती हैं? क्या भाजपा-विरोधी किसी भी दल में उस भाजपा जैसा बनने का माद्दा दिखता है, जो वास्तव में कांग्रेस को बहुत-बहुत पीछे धकेलकर काफी आगे तक जाने का करिश्मा कर सकी? क्या कांग्रेस अब वह कांग्रेस रह गयी है, जिसने अपनी स्वीकार्यता तथा शक्ति की दम पर अन्य दलों का नेतृत्व करते हुए वर्ष 2004 से 2014 तक भाजपा को ‘‘फील गुड’’ के लिए तरसा कर रख दिया था?                                                                                                              
इसमें कोई दो राय नहीं कि विपक्ष की एकता से भाजपा के अच्छे दिन संकट में आ सकते हैं. लेकिन ऐसी आस वर्तमान विपक्ष से किस हद तक की जा सकती है? कांग्रेस बुरी तरह कमजोर हो चुकी है. पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में सभी जगह मिली शर्मनाक पराजय ने पंजे में किसी समय अंकित राजयोग वाली लकीरों को अब दरारों में परिवर्तित कर दिया है. यूं भी, इन चुनावों से पहले ही समय-समय पर बनर्जी सहित समाजवादी पार्टी, बसपा, राजद, आप आदि सभी भाजपा-विरोधी दल कांग्रेस के नेतृत्व में आगे बढ़ने से साफ मना कर चुके हैं.
अब कांग्रेस के पास यही विकल्प बचता है कि आने वाले विधानसभा चुनावों में धुआंधार जीत हासिल कर वह साबित कर दे कि आज भी भाजपा को रोकने में उसका कोई सानी नहीं है. इस दल के पास ऐसा करने के लिए अवसर भी है. क्योंकि आगे होने वाले चुनावी राज्यों में कर्नाटक के अलावा बाकी सभी जगह उसका सीधा मुकाबला भाजपा से ही है. इस तरह ममता की उम्मीदों वाली एकता का झंडा थामने के लिए कांग्रेस को दिल थामकर इस बात का इंतजार करना होगा कि अगले साल के चुनावी घमासान में वह किस तरह ‘‘नयी ताकत और नए जोश’’ जैसे किसी चमत्कार को अंजाम दे पाती है.                                                                                                        
बात स्वयं ममता की करें, तो भी वह इस मामले में कांग्रेस का विकल्प नहीं दिखती हैं. तृणमूल कांग्रेस का पश्चिम बंगाल से बाहर कोई असर नहीं है. साथ ही बनर्जी के पास पश्चिम बंगाल से बाहर इंदिरा गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी या नरेंद्र मोदी जैसी मास अपील का खासा अभाव है. भाजपा-विरोधी शेष दलों के नेताओं की इस मामले में स्थिति ममता से भी ज्यादा गयी-गुजरी है. बनर्जी पर्याप्त रूप से चतुर हैं. परिस्थितियों का ऐसा सच उनसे भी नहीं छिपा है। फिर भी वह इस एकता के प्रयास के लिए विवश हैं. क्योंकि वीरभूम हिंसा के बाद से उनकी सरकार पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं. भतीजे अभिषेक बनर्जी की ईडी से चल रही लुका-छिपी किसी भी दिन कड़ी कार्यवाई जैसी अप्रिय स्थिति की वजह बन सकती है..
इस सब से बचने के लिए ममता के पास अभी यही विकल्प है कि वह विपक्ष की एकता के नाम पर  केंद्र सरकार पर दबाव बनाएं और उसमें निरंतर वृद्धि करें.. निस्संदेह ममता की तुलना प्रेमचंद वाली मौसी के पात्र की किसी भी कमजोरी से नहीं की जा सकती है. फिर भी वह पंच परमेश्वर की मौसी इसलिए हैं कि उन्हें भी एक अदद अलगू चौधरी की सख्त दरकार है. स्वभाव के लिहाज से खुद चौधराहट से भरी बनर्जी क्या किसी और चौधरी की अधीनता स्वीकार कर सकेंगी? यह सवाल भी विपक्षी  एकता के ताने बाने को सवालिया दायरे में ला रहा है. वह पंच परमेश्वर वाला मामला था, यहां प्रपंच परमेश्वर वाली स्थिति है.
अब विपक्षी एकता की गुहार लगा रही ममता  बनर्जी  क्या अपने राज्य में वामपंथियों और कांग्रेस को साथ ला सकती हैं? या उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में मायावती और अखिलेश के साथ प्रियंका को एक कर सकती हैं. या ये तीनों एक होकर ममता  बनर्जी  को अपना नेता स्वीकार कर लेंगे? या बिना कांग्रेस के ताकत हासिल किए विपक्षी एकता का कोई प्रयोग सफल हो सकता है? क्षेत्रीय दलों के राष्ट्रीय राजनीति में हावी होने का एक तथ्य यह है कि वे कांग्रेस या भाजपा के नेतृत्व बिना खुद कोई निर्णायक ताकत नहीं बन सकते हैं. लिहाजा, ममता  बनर्जी   की ऐसी कोशिशों से भाजपा की सेहत पर फिलहाल कोई फर्क नहीं पड़ेगा.
किसी की राह में कालीन बनकर बिछने का मतलब यही होता है कि आप अगले के पैरों तले रौंद दिए जाएंगे. पश्चिम बंगाल के बीते चुनाव में कांग्रेस ने ममता के लिए इसी कालीन की भूमिका निभाई थी और अब ममता पूरी तरह इस पार्टी के सिर पर सवार हो चुकी हैं. यह ममता का प्रपंच था या कांग्रेस का प्रारब्ध, कह नहीं सकते. लेकिन यह वह सच है, जिससे भाजपा-विरोधी दल भी वाकिफ हैं. बनर्जी ने कभी कांग्रेस तो कभी राजग के कंधे पर सवार होकर अपनी मंजिल को पाया है और यह उनके चरित्र का हिस्सा बन चुका है. इस तथ्य में छिपे सार को समझिये तो विपक्ष की एकजुटता के बनर्जी के प्रयासों की निस्सारता का आकलन करना आसान हो जाएगा.

Contact:
Editor
ओमप्रकाश गौड़ (वरिष्ठ पत्रकार)
Mobile: +91 9926453700
Whatsapp: +91 7999619895
Email:gaur.omprakash@gmail.com
प्रकाशन
Latest Videos
जम्मू कश्मीर में भाजपा की वापसी

बातचीत अभी बाकी है कांग्रेस और प्रशांत किशोर की, अभी इंटरवल है, फिल्म अभी बाकी है.

Search
Recent News
Leave a Comment: