24 जनवरी. राकेश दुबे देश में अजीब माहौल है. देश के स्वाभिमान और सम्मान पर राजनीति हो रही है. देश के स्वाभिमान और सम्मान के लिया बने स्मारक, और देश के लिए शहीद हुए हुतात्माओ पर जिस तरह की बयानबजी हो रही है शर्मनाक है. और यह राजनीति भी तब हो रही है और जब देश का गणतंत्र दिवस मनाया जाना है. इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वादे ने उनके और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच का तनाव बढ़ा रखा है. अमर जवान ज्योति के पुनर्स्थापन को लेकर भी देशके राजनीतिक दल एक मत नहीं है. आखिर ये राजनीतिक दल चाहते क्या हैं ?
ममता बनर्जी का सवाल है कि केंद्र ने नेताजी की मौत से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक क्यों नहीं किया? उनकी पार्टी ने मांग की है कि जापान के रेनकोजी मंदिर में संरक्षित राख, जिसे स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की माना जाता है, उसे डीएनए विश्लेषण के लिए भेजा जाए. नेताजी की मृत्यु पर विवाद एक बेहद भावनात्मक मुद्दा है और अमर जवान ज्योति हमारे स्वाभिमान का प्रतीक.
अब भारत-पाकिस्तान युद्ध की प्रतीक अमर जवान ज्योति ज्वाला को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की ज्वाला से मिला दिया गया है. सरकार का मानना था कि इंडिया गेट पर जिन शहीदों-वीरों के नाम हैं, उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध और एंग्लो-अफगान युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में लड़ाई लड़ी थी, जबकि अमर जवान ज्योति बांग्लादेश की मुक्ति के लिए शहीद हुए वीरों की याद में है, इसलिये दोनों अलग-अलग हैं. इस लिहाज से औपनिवेशक काल के प्रतीक इंडिया गेट को स्वतंत्र रहने देना चाहिए और अमर जवान ज्योति को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में लाना एक लिहाज से सरकार का तर्कपूर्ण फैसला है.
अमर जवान ज्योति इंडिया गेट के बीच अनवरत लगभग 50 वर्षों से यह ज्योति प्रज्ज्वलित थी, जिसे देखकर शहादत की भव्यता और गर्व की अनुभूति होती थी. कम से कम तीन पीढ़ियां ऐसी बीती हैं, जिनके लिए इंडिया गेट के साथ अमर जवान ज्योति के दर्शन का विशेष महत्व था. अब हमारी शान का एक प्रतीक इंडिया गेट तो वहां रहेगा, लेकिन ज्योति के दर्शन वहां नहीं, वहां से 400 मीटर दूर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में होंगे. सरकार के इस निर्णय पर बड़ी संख्या में पूर्व सैनिकों ने खुशी जताई है. आमतौर पर यही यथोचित है कि दिल्ली में एक ही स्थान पर ऐसी शहादत को समर्पित ज्योति रखी जाए. देश के शहीदों, वीरों के सम्मान पर किसी तरह के विवाद की कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए. शायद सेना को भी यही लगता है कि राष्ट्रीय युद्ध स्मारक ही एकमात्र स्थान है, जहां वीरों को सम्मानित किया जाना चाहिए, तो इस फैसले और स्थानांतरण का स्वागत है. इधर, सरकार ने एक और फैसला लिया है कि इंडिया गेट के पास नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा स्थापित होगी. यह फैसला भी अपने आप में बड़ा है. अभी तक वहां किसी प्रतिमा के लिए कोई जगह नहीं थी, अब अगर जगह निकल रही है, तो आने वाली सरकारों को संयम का परिचय देना पड़ेगा. अलग-अलग सरकारों के अपने-अपने आदर्श रहे हैं और अलग-अलग सरकारों द्वारा अलग-अलग प्रकार के स्मारक बनाने का रिवाज भी रहा है. यही विचार की मूल वजह है. स्मारकों और प्रतिमाओं का सिलसिला सभ्य और तार्किक होना चाहिए. इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे स्मारक देशवासियों को प्रेरित करते हैं और इससे देश को मजबूती मिलती है, लेकिन तब भी हमें राष्ट्रीय महत्व के कुछ स्मारकों को उनके मूल स्वरूप में ही छोड़ देने पर अवश्य विचार करना चाहिए. इन विवाद करना शोभनीय नहीं है.
स्मारक विवाद के बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की फाइलों का विवाद
केंद्र सरकार का दावा है कि उसने नेताजी से जुड़ी सभी फाइलों को सार्वजनिक कर दिया है. अप्रैल 2016 में केंद्र ने 25 अवर्गीकृत फाइलों का तीसरा बैच जारी किया था, जिसमें प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय की पांच फाइलें और विदेश मंत्रालय की 15 फाइलें शामिल थीं. यह फाइलें 1956 से 2009 के बीच की अवधि की थीं. हालांकि शोधकर्ताओं के एक वर्ग का आरोप है कि इस मामले में इंटेलिजेंस ब्यूरो की फाइलें अभी भी सार्वजनिक नहीं की गई हैं. जरा सोचिये, क्या ये विवाद के विषय हैं ? यह तो कृतघ्नता है, इससे फौरी लाभ भले ही मिल जाये राष्ट्र का चरित्र धूमिल होता है. हे! राजनेताओं बस कीजिए.