प्रवीण गुगनानी.20 जनवरी. हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को “जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब” माना है. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य को “ज्ञानराशि का संचित कोश” व “समाज का दर्पण” कहा है. अनेकों विद्वानों, साहित्यकारों, संतो, महात्माओं के मतानुसार साहित्य समाज की प्रेरकशक्ति है. निस्संदेह समाज ने साहित्य की इस शक्ति को उससे मिल रहे प्रदेय के आधार पर ही माना है. क्या है यह साहित्य का प्रदेय? साहित्य के प्रदेय का संपूर्ण आकलन तो किया नहीं जा सकता किंतु इस प्रदेय का लेखन, प्रलेखन, ग्रंथीकरण, अभिनंदन का प्रयास अवश्य किया जा सकता है; इस कार्य को ही अखिल भारतीय साहित्य परिषद् ने अपने लक्ष्य रूप में स्वीकार किया है. अखिल भारतीय साहित्य परिषद् का सोलहवां राष्ट्रीय अधिवेशन अलीपुर, हरदोई, उप्र में षष्ठी एवं सप्तमी, कृष्णपक्ष, मार्गशीर्ष, संवत २०७८ को संपन्न हुआ. इस राष्ट्रीय अधिवेशन में अभासाप ने अपने त्रेवार्षिक ध्येयवाक्य के रूप में “साहित्य का प्रदेय” विषय को धारण किया है. अब आगामी तीन वर्षों तक अभासाप के कार्यक्रम, योजनाएं, यात्राएं, रचनाएं, प्रकाशन व पुस्तकें प्रमुखतः इस विषय पर केंद्रित होंगी.
संपूर्ण राष्ट्र के साहित्यिक वातावरण के सरंक्षण, संवर्धन व संपुष्टि के कार्य में प्राणपण से कार्यरत संस्था अभासाप की स्थापना अश्विन शुल्क द्वादशी सम्वत २०३३ विक्रमी, तदनुसार 27 अक्तूबर, 1966 को दिल्ली में हुई. इसकी देश के 30 प्रांतों में 695 इकाइयां कार्यरत हैं व 173 स्थानों पर जीवंत संपर्क है. यह साहित्य के क्षेत्र में भारतीय दृष्टि को स्थापित करने, देश के बौध्दिक वातावरण को स्वस्थ बनाने, समस्त भारतीय भाषाओं एवं उनके साहित्य का संरक्षण करने तथा नवोदित साहित्यकारों को प्रोत्साहन देने हेतु कार्यरत संस्था है. इस तरह साहित्य परिषद् वर्ष 1966 से ही विभिन्न भारतीय भाषाओं के सर्जनात्मक एवं आलोचनात्मक लेखन में भारत-भक्ति के भाव से जागरण का कार्य एकाग्र-चित्त से कर रही है. अभासाप भारतीय साहित्य और भारतीय भाषाओ की उन्नति, भारतीय साहित्य एवं भाषाओं के अनुसंधान कार्य को प्रोत्साहन तथा तत्संबंधी अनुसंधान केंद्र की स्थापना, भारतीय भाषाओं में परस्पर आदान -प्रदान और सहयोग को बढ़ावा देना, भारतीय जीवन - मूल्यों में आस्था रखने वाले साहित्यकारों को प्रोत्साहित करना तथा ऐसे साहित्य के प्रकाशन और प्रसारण में सहयोग करना, जनमानस में भारतीय साहित्य के प्रति आस्था तथा अभिरुचि उत्पन्न करना, साहित्य सामाजिक परिवर्तन का वाहक बन कर राष्ट्र की प्रगति में प्रभावी भूमिका निभा सके, इसके लिए प्रयास करना जैसे ध्येय के साथ राष्ट्र आराधना के अपने कार्य में सिद्धगति से आगे बढ़ने वाली एक प्रमुख संस्था है.
अभासाप के सोलहवें राष्ट्रीय अधिवेशन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य व अभासाप के पालक अधिकारी स्वांतरंजन जी, राष्ट्रीय संगठनमंत्री श्रीधर जी पराड़कर व देश भर में चर्चित व प्रसिद्द उपन्यास “आवरण” के लेखक पदमश्री भैरप्पा जी का सारस्वत मार्गदर्शन प्राप्त हुआ. अपने इस अधिवेशन में अभासाप ने राष्ट्र में चल रहे साहित्यिक विमर्श की समीक्षा की व इस आधार पर अपनी आगामी कार्ययोजना को देश भर से आए कार्यकर्ताओं के समक्ष रखा. अधिवेशन में 18 राज्यों से ढ़ाई सौ से अधिक कार्यकर्ता साहित्यकार सम्मिलित हुए. कोरोना महामारी को देखते हुए संगठन की ओर से कुछ चिन्हित कार्यकर्ताओं को ही अपेक्षित किया गया था. कड़ाके की शीतलहर के मध्य, विशेषतः उत्तरप्रदेश की हड्डियों तक को भीतर तक झुरझुरा देने वाली ठंड में एक अत्यंत छोटे से ग्राम अलीपुर में इतने साहित्य प्रेमियों का इकट्ठा होना अभासाप के कार्यकर्ताओं का साहित्य के प्रति प्रेम, समर्पण व संकल्प का ही परिणाम था. नैमिषारण्य की पावन भूमि पर इतने साहित्यकारों का यह अनुष्ठान प्राचीन समय में यहां हुए 88 हजार ऋषियों के महान अनुष्ठान की पुनीत स्मृति का बारंबार वंदन कर रहा था.
अलीपुर के विशुद्ध ग्रामीण परिवेश में संपन्न इस राष्ट्रीय अधिवेशन में अतिथियों को विशुद्ध ग्रामीण व देशज शैली के वातावरण, आवास व भोजन का आनंद चखने को मिला. लाही के लड्डू, कैथ, गन्ने का रस, इमली, बथुए का रायता, मक्के की रोटी, दही जलेबी, बताशे, रेत में भुने आलू और न जाने कितने ही ग्रामीण भारत के स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ चखने को मिले. अधिवेशन प्रांगण में छोटी छोटी गोबर से लिपि पुती कुटियाओं, उसमें बिछी रस्सी की खाट और उसमे टंगे मद्धम उजाला देते लालटेन समूचे ग्रामीण परिवेश को जीवंत और साकार किए दे रहे थी. अवध अयोध्या की सुखद बयार से हरदोई का वातावरण सुरभित था ही और यहां का मंच नैमिषारण्य की व्यासपीठ का पावन आभास उत्पन्न करा रहा था.
उदघाटन सत्र में अभासाप के राष्ट्रीय संगठनमंत्री श्रीधर जी पराड़कर ने अपने विस्तृत उद्बोधन में जो कहा वह निश्चित ही भारतीय साहित्य लेखन को भारत की परम्परा व संस्कृति की दिशा में और अधिक प्रेरित व गतिमान करने का पाथेय है. अभासाप के पालक अधिकारी स्वांतरंजन जी ने कहा कि हमें हमारी भारतीय भाषाओं के प्रति स्व का भाव जागृत करके उनका उन्नयन करना होगा. उन्होंने कहा कि हमें केवल साहित्यक कार्यक्रम नहीं करना है, साहित्य में जो विकृति जानबूझकर लाई गई है उसके स्थान पर हमें साहित्य में सुकृति लानी है व समाजोपयोगी साहित्य की रचना करनी है. 1947 में हमें राजनैतिक स्वतंत्रता तो मिल गई किंतु स्वधर्म, स्वसंस्कृति, स्वभाषा, स्वदेशी, स्वराज्य आदि आवश्यक तत्व पीछे छूट गए. आज आवश्यकता है कि इन बातों को हम साहित्य के माध्यम से समाज के सम्मुख रखें.
कर्नाटक के पदमश्री सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार डा. भैरप्पा जी ने कहा कि भारत की समृद्ध ज्ञान परम्परा रही है, हमारे पास पौराणिक साहित्य का विपुल भंडार है, रामायण आदि महाकव्य है. नेहरू के कम्युनिस्ट प्रेम के कारण हमारे शासकीय संस्थानों पर कम्युनिस्टों ने कब्जा कर लिया. भैरप्पा जी ने कहा कि कांग्रेस कार्यकारिणी के अधिकांश सदस्य सरदार पटेल के पक्ष में थे फिर भी महात्मा गांधी ने पंडित नेहरू को प्रधानमंत्री का पद पुरस्कार स्वरुप दे दिया जो कि बाद में एक बड़ी गलती सिद्ध हुआ. भैरप्पा जी ने अपने दीर्घ भाषण में कई एतिहासिक तथ्यों व रहस्यों का रहस्योद्घाटन किया जिन्हें पृथक रूप से आगे कभी लिखना उचित होगा.
परिषद् के राष्ट्रीय महामंत्री ऋषिकुमार मिश्र ने प्रतिवेदन में कहा कि साहित्य परिषद भारत भक्ति के भाव का जागरण करते हुए आत्मचेतस भारत के निर्माण द्वारा साहित्य रचना और आलोचना के क्षेत्र में वैचारिक स्वराज्य की स्थापना के लिए प्रयत्नशील है.
साहित्य परिषद् ने अपने अधिवेशन प्रस्ताव में दो संकल्पों को घ् ध्वनि से पारित किया. प्रथम प्रस्ताव, भारत को इंडिया के नाम से नहीं पुकारने व भारत को केवल भारत नाम से लिखने - पढ़ने का प्रस्ताव है. द्वितीय प्रस्ताव में औपनिवेशिक प्रवृत्तियों से मुक्ति पाने का प्रस्ताव पारित किया गया.
अभासाप के नए अध्यक्ष के रूप में डा. सुशील त्रिवेदी व संयुक्त महामंत्री के रूप मे डा. पवनपुत्र बादल को मनोनीत किया गया. इस अवसर पर क्षितिज पाट्कुले द्वारा निर्मित अभासाप के नए संकेतस्थल (वेबसाईट) www.akhilbhartiysahityaparishad.org. का लोकार्पण भी हुआ. साहित्य का प्रदेय विषय पर केंद्रित आलेखों व शोधपत्रों से सज्जित अभासाप की मुखपत्रिका “साहित्य परिक्रमा” के विशेषांक विमोचन के साथ ही इस विषय पर आगामी तीन वर्षों तक अनवरत चलने वाले विमर्श का प्रारंभ हुआ. परिषद् के पिछले त्रेवार्षिक ध्येय वाक्य “साहित्य का सामर्थ्य” पर सिद्ध चिंतन होने के पश्चात निश्चित ही “साहित्य का प्रदेय” की यह यात्रा देश के साहित्यिक वातावरण को एक नई दशा, दिशा व दक्षता प्रदान करने वाली सिद्ध होगी.