प्रकाश भटनागर, वरिष्ठ पत्रकार भोपाल. 22 जनवरी. संत कबीरदास लिख गए हैं, ‘‘लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल. लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गयी लाल’’. पता नहीं कि कांग्रेस के जीवन की लालिमा वाली सुबह अब कब आएगी. फिलहाल तो इस दल का लगभग पूरा समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी, नरेंद्र मोदी, हिन्दू और हिन्दूत्व पर लाल-पीला होने में ही गुजरे जा रहा है. लेकिन आज लाल रंग से इस दल ने जिस तरह का सियासी श्रृंगार किया, वह बहुत रोचक लग रहा है. प्रियंका वाड्रा ने भाई राहुल गांधी के साथ मिलकर उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में युवाओं के लिए अपना घोषणा पत्र ‘‘भर्ती विधान’’ जारी किया. इसके लिए तैयार किया गया मंच लाल रंग के असर में रंगा हुआ था. सुर्ख लाल रंग ने घोषणा पत्र के आधे से अधिक कवर को भी अपनी चपेट में ले रखा है. युवाओं के लिए बीस लाख रोजगार वाली घोषणा को पंचलाइन ‘‘मेरा हक मुझे मिलेगा’’ से बल देने की कोशिश भी गौरतलब है.
ये लाल रंग का फैक्टर तब और सुर्ख अर्थ वाला हो जाता है, जब हम पाते हैं कि पूरे मंच और घोषणा पत्र के कवर पर कहीं भी कांग्रेस का ध्वज दिखाई नहीं दिया. जो दिखा, वह कम्युनिस्टों की विचारधारा का प्रतीक और प्रतिबिंब लाल रंग था. पार्टी का जो ध्वज इसके बीते स्थापना दिवस पर आरोहण के बीच गिर गया था, आज वही ध्वज इस पूरे आयोजन में नेपथ्य में भी नहीं नजर आया. यह सच है कि कांग्रेस पर एक लंबे समय से वामपंथ का बहुत अधिक प्रभाव साफ दिख रहा है. राहुल गांधी की सोच से लेकर पार्टी के कई नेताओं के बयान और काम देखकर एक ही कमी महसूस होती है कि कांग्रेस के लोग एक-दूसरे से चर्चा में ‘‘कॉमरेड’’ के संबोधन का इस्तेमाल नहीं करते हैं. बाकी तो कॉमरेडीकरण इस दल में बहुत पहले ही हो चुका है. तो क्या आज का घटनाक्रम ये पुष्टि करता है कि भगवा के खिलाफ अपनी खोयी ताकत और जवानी फिर पाने की कोशिश में कांग्रेस को अपनी मूल रीति-नीति से अधिक वामपंथ का सहारा अधिक भरोसेमंद जान पड़ रहा है? कांग्रेसियों की अपनी सोचने बुझने की क्षमता पर यह बड़ा प्रश्नचिन्ह है.
वैसे इस रंग से जुड़े कांग्रेस के अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं. जवाहर लाल नेहरू अपनी मृत्यु के करीब साढ़े चार दशक के बावजूद आज भी देश की कई समस्याओं का ठीकरा फोड़ने के लिए सबसे मुफीद साधन बने हुए हैं. इसके बाद लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी मृत्यु को लेकर भी कांग्रेस आज तक सवालों के कटघरे से बाहर नहीं आ पायी है. इंदिरा जी आपातकाल को लेकर अपने एक लाल संजय गांधी के चलते ही सर्वाधिक विवादों में रहीं. दूसरे लाल अपनी मां की हत्या के उपरान्त हुए हजारों सिखों के नरसंहार को बड़े पेड़ के गिरने से धरती के कांपने की तरह बताकर अपनी पार्टी के लिए सदैव ताजा रहने वाले जख्म का प्रबंध करके चले गए. वर्तमान लाल राहुल गांधी के घोषित और अघोषित नेतृत्व में पार्टी को मिली तमाम नाकामियों तथा तोहमतों का दर्द तो आज भी कांग्रेस झेल ही रही है. लाली यानी प्रियंका वाड्रा भी बीते लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश में अपनी पार्टी की सीटों की संख्या दो से घटाकर एक करने के बाद एक्सपोज हो चुकी हैं.
तो पार्टी के भीतर परिवार वाले लाल और लाली का प्रयोग नाकाम हो चुका है. इसके बाद भी लाल से जो मोह दिख रहा है, वह वामपंथ के लिए कांग्रेस के कमिटमेंट को और मजबूती से उजागर करने वाला मामला प्रतीत हो रहा है. हो सकता है कि यह तुलना कुछ कपोल कल्पित लगे, लेकिन जिस पंथ की तरफ सोनिया गांधी से लेकर राहुल और प्रियंका की कांग्रेस झुकती जा रही है, उसे देखकर इस बात को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता है. यूं इस लाल कवर के भीतर से जो सतरंगी घोषणाएं निकल रही हैं, वह बहुत लुभावनी हैं. आठ लाख युवतियों सहित बीस लाख बेरोजगारों को सरकारी नौकरी देने का कांग्रेस ने वादा किया है. जाहिर है कि ‘‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’’ वाली श्रीमती वाड्रा ‘‘लड़कियों की दम पर उत्तरप्रदेश में बढ़ सकती हूं’’ वाले फॉमूर्ले पर यकीन कर रही हों. एक वादा यह भी उल्लेखनीय है कि राज्य के युवाओं को नशे की जद से बाहर निकलने के लिए भी पार्टी प्रयास करेगी. दिल के बहलाने को ये ख्याल अच्छे हैं, लेकिन क्या मतदाता को बहलाने के लिए यह सब कारगर साबित हो पाएगा?
वर्तमान में कांग्रेस इस राज्य के चुनावी परिदृश्य में मुकाबले के लिहाज से चौथे स्थान पर बनी रहने के लिए भी पसीना बहा रही है. बीते विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की साइकिल की पिछली सीट पर बैठने के बाद भी कांग्रेस को इस प्रदेश में दहाई की संख्या में भी सीट नहीं मिल सकी थीं. जातिवादी राजनीति के घमासान से जिस राज्य में हर उम्र और वर्ग का मतदाता बुरी तरह प्रभावित है, उस राज्य में कांग्रेस की इस गणित के हिसाब से कोई तैयारी नहीं दिख रही है. सबसे बड़ी बात यह कि कांग्रेस ने किसी समय के अपने सबसे मजबूत गढ़ रहे उत्तरप्रदेश में अपना संगठनात्मक ढांचा दुरुस्त करने की दिशा में लगभग कोई भी प्रयास नहीं किया है. गए चुनाव में रीता बहुगुणा और इस चुनाव से पहले जितिन प्रसाद की बगावत के बाद भी राहुल या प्रियंका पार्टी के आधार को मजबूती देने वाले किसी भी फॉमूर्ले पर काम करते नहीं दिख रहे हैं. जाहिर है कि कांग्रेस को आज भी चेहरों और गांधी परिवार के जादू पर ही ज्यादा भरोसा है. काफी हद तक यह यकीन लाल रंग के टोटके पर भी टिक गया दिखता है. तभी तो ‘‘...मैं भी हो गयी लाल’’ का ऐसा खुला प्रदर्शन किया गया है. क्या कांग्रेस अब वैचारिक रूप से भी इस कदर मोहताज हो चुकी है? जहां तक वामपंथियों का सवाल हैं तो जाहिर है देश की जनता ने उन्हें कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आमतौर पर स्वीकार नहीं किया है. ऐसे में कांग्रेस की व्यापक पहचान का कंधा वामपंथी बंदूक के लिए उचित ठीकाना है.