दिल्ली में केजरीवाल पर अंकुश, प्रजातंत्र पर चोट नहीं
दिल्ली में केजरीवाल ने केन्द्र सरकार से लगातार टकराहट को ही अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिये अनिवार्य मान लिया था. साथ ही वे अपने राजनीतिक दायरे के विस्तार के लिये बैचेन थे और सरकारी खजाने को अकारण लुटाने से बाज नहीं आ रहे थे. इसलिये वे बार बार हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जा रहे थे. केन्द्र सरकार ने दाव खेला और दिल्ली प्रशासन संबंधी कानून में संशोधन कर अंकुश लाद दिया. केजरीवाल ने इसे लोकतंत्र के लिये काला दिन बताया. कई ने असंवैधानिक कदम भी कहा.
पर यह लोकतंत्र की एक और परीक्षा है. केजरीवाल को अब हर प्रशासनिक और विधायी फैसले के लिये उप राज्यपाल की अनुमति लेनी होगी. अनुमति शायद सही कदम न हो और कहा गया हो कि उपराज्यपाल को दिखाना होगा. उसके बाद केजरीवाल आदेश जारी कर सकेंगे या विधानसभा में प्रस्ताव ला सकेंगे. उपराज्यपाल उसे अनुमति देंगे या असहमत हुए तो उसे राष्ट्रपति के पास भेज सकेंगे. राष्ट्रपति जैसा मार्गदर्शन देंगे उसी के हिसाब से उन्हें कदम उठाना होगा.
इसमें मैंने दिखाना शब्द इसलिये लिखा कि अगर पहले से ही उपराज्यपाल ने इजाजत दे दी तो फिर बाद में असहमति की गुंजाइश करीब करीब खत्म हो जाती है.
अगर दिखाने के बाद केजरीवाल ने उपराज्यपाल ने प्रशासनिक आदेश जारी कर दिया या विधानसभा में पेश कर प्रस्ताव पारित करवा लिया तो उपराज्यपाल उसे रोक सकेंगे. हो सकता हो तब उपराज्यपाल को इन प्रस्तावों को राष्ट्रपति के बाद भेजना पड़े.
अभी यह भी स्पष्ट नहीं नहीं है कि राज्यपाल अगर एक बार प्रस्ताव या आदेश पर असहमति बता दें और उसे स्वयं या राष्ट्रपति के पास भेजने के बाद उनकी सलाह के अनुसार वापस कर दें तब उस स्थिति में अगर इसी प्रक्रिया को दुबारा अपनायें तो क्या उपराज्यपाल को स्वयं या राष्ट्रपति की सलाह के बाद भी उस आदेश या प्रस्ताव को स्वीकृति देने को बाध्य होना पड़ेगा या नहीं. क्योंकि ऐसी स्थिति पूण राज्यों में राज्यपाल और केन्द्र में राष्ट्रपति के सामने तो होती है. वे दुबारा अस्वीकार्य नहीं कर सकते.
लेकिन इस सब के बाद भी लोकतंत्र की हत्या नहीं हुई है न लोकतंत्र कमजोर पड़ा है. नियम हो या प्रस्ताव उसे मुख्यमंत्री ही तैयार कर सकते हैं राज्यपाल को यह अधिकार नहीं है. राज्यपाल बस स्वीकार या अस्वीकार कर सकते हैं. अस्वीकार भी शायद केवल एक बार, दुबारा नहीं. दुबारा में वे उसे मंजूरी देने के लिये बाध्य हैं.
यानि सिर्फ अंकुश की कोशिश की गई है किसी के अधिकार को कम करने या बढ़ाने की बात नहीं की गई है. चुनी हुई सरकारों की मनमानियों पर अंकुश रहे तो क्या बुरा है. हमने भी माना है कि कोई भी अधिकार असीमित नहीं हो सकता. असीमितता का भाव ही अराजकता पैदा करता है. यही काम केजरीवाल अब तक कर रहे थे.