बैंक कर्मचारी समय रहते जाग जाते तो नहीं आती निजीकरण की नौबत

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2021-03-23 02:21:14


बैंक कर्मचारी समय रहते जाग जाते तो नहीं आती निजीकरण की नौबत

बैंक कर्मचारी समय रहते जाग जाते तो नहीं आती निजीकरण की नौबत
बैंक हड़ताल और बैंकों के निजीकरण पर मेरी राय साफ है कि यह सिर्फ दावपेंच का खेल है. राष्ट्रीयकरण ने बैंकों में यूनियनों को ज्यादा ताकतवर बना दिया था जिससे कर्मचारी और अधिकारी बैंक के कामों से ज्यादा निजी कामों को ज्यादा अहमियत देने लगे थे. एकदम केन्द्र और राज्य सरकारों के कर्मचारियों की तरह. सरकार ने हालात को सुधारने के कई प्रयास किये पर विफल रहे. इनमें प्रमुख कदम मेरी नजर में बैंकों के कुछ कामों की आउटसोर्सिंग था. उसे यूनियनों ने लागू नहीं होने दिया. हालात को काबू में लाने के लिये बैंकों की संख्या कम करने के  लिये विलीनीकरण का रास्ता अपनाया उसका भी जमकर विरोध हुआ. तब सरकार ने तोड़ में निजीकरण का दाव अपनाया है. यह भी यूनियनों के दबाव में आसान नहीं है. पर लागू करने में अपेक्षाकृत आसान प्रतीत हो रहा है.
निजीकरण को बैंकों की समस्याओं का समाधान माना जा रहा है. मेरी राय में यह सही नहीं है. विलीनीकरण शायद सही समाधान है जिसका विरोध यूनियनें करती हैं. मेरा मानना है कि विलीनीकरण के साथ आउटसोर्सिंग को भी कर्मचारियों को स्वीकार कर लेना चाहिये. इसके लिये मेरे अपने विचार हैं.
राष्ट्रीयकरण मेरे हिसाब से राजनीतिक कदम था. इसे समाज हित में बताया गया और आर्थिक प्रबंधन के लिये भी सही बताया गया.
इंदिराजी ने बैंक राष्ट्रीयकरण का खूब राजनीतिक लाभ उठाया और सामाजिक लाभ भी दिलवाये. पर बैंकों की आर्थिक स्थिति कमजोर होती गई इस पर ध्यान नहीं दिया. धीरे धीरे राजनीतिज्ञों ने भ्रष्टाचार का प्रवेश बैंकों में करवाया और सर्वोच्च स्तर तक यह राजनीतिक भ्रष्टाचार फैला. इसका राजनीतिक नेताओं और कार्यकर्ताओं के साथ साथ उद्योगपतियों सहित कई लोगों ने भी खूब लाभ उठाया. नीरज मोदी, माल्या आदि के भ्रष्टाचार की करतूतें इसी भ्रष्टाचार का नतीजा हैं. इससे बैंक भारी कमजोर हो गये और सरकार पर आश्रित होने लगे. यह सरकार को भारी पड़ने लगा खासकर मोदी सरकार जैसी अपेक्षाकृत ज्यादा ईमानदार और पारदर्शी सरकार को. इसलिये समाधान में बैंकों के काम को आउटसोर्स करने की कोशिशें की साथ ही बैंकों के विलीनीकरण को तेज किया पर विरोध  के आगे सरकार ज्यादा तेजी से यह काम नहीं कर पा रही थी इसलिये कर्मचारी यूनियनों पर दबाव के लिये निजीकरण की बात कही ऐसा मेरा मानना है.
अगर कर्मचारी विलीनीकरण का विरोध धीमा करेंगे तो निजीकरण की बात भी धीमी पड़ जाएगी ऐसा मैं मानता हूं.
पर कर्मचारी यूनियनों को आउटसोर्सिंग का विरोध एकदम बंद कर देना चाहिये.  उसका समर्थन करना चाहिये. इसे कैसे बेहतर तरीके से लागू किया जाये इसके रास्ते बताने चाहिये.
ऐसा मैं इसलिये कह रहा  हूं कि बैंकिंग आज आर्थिक के साथ सामाजिक दायित्व  भी बन गई है. यह राष्ट्रीयकरण का नतीजा है. जबकि निजी बैंक इस सामाजिक दायित्व से मुक्त हैं. इसलिये वे बैंकिंग के आर्थिक पक्ष को बेहतर तरीके से निभा पाते हैं इससे बैंक प्रबंधन भी खुश रहता है, बैंकिग से नया आर्थिक बोझ नही पड़ने से सरकार भी प्रसन्न रहती है. बल्कि उसने तो हाल ही में ऐसे कई सरकारी काम  निपटाने की छूट भी निजी बैंकों को दे दी है. इससे सरकार पर कोई आर्थिक भार भी नहीं पड़ा और जनता को भी सहुलियत हो गई. सरकारी बैंकों पर काम का बोझ भी कम हुआ. लेकिन इससे राष्ट्रीयकृत बैंकों को नुकसान हुआ है. उनका आर्थिक लाभ निजी बैंकों के साथ बंटने लगेगा इससे राष्ट्रीयकृत बैंक कमजोर होंगे और निजी बैंकों में एक और आकर्षण जुड़ जाने के कारण वे मजबूत होंगे. आर्थिक लाभ तो बढ़ेगा ही.
इसलिये मेरा सुझाव है कि सरकारी बैंक खुद बैंकिंग पर ध्यान दें और जो सामाजिक जिम्मेदारियों के तहत बैंकिंग संबंधी काम करते हैं उनकी आउटसोर्सिंग करें. उनका काम सिर्फ सुपरविजन तक सीमित रहे. इससे उन पर काम का भार कम होगा. खर्च भी कम होगा और ज्यादा लाभ देने वाली बैंकिंग सेवाओं में भी सुधार होगा.
इसके समर्थन में एक उदाहरण देकर मैं अपनी बात खत्म करना चाहूंगा.
एक अच्छी खासी आमदनी वाले सज्जन जो निवेश जमा आदि की सारी गतिविधियों में अच्छे खासे सक्रिय रहते हैं का कहना है कि उनके दो खाते हैं एक सरकारी बैंक में और एक निजी बैंक में. पर वे बेहद जरूरी न्यूनतम बैंकिंग जैसे काम ही सरकारी बैंक में करते हैं क्योंकि उन्हें वहां लगने वाली  पेंशनरों की, सामाजिक सुरक्षा के तरह तरह के कामों के लिये आने वाले लोगों की भीड़ पसंद नहीं है जो निजी बैंकों में नहीं रहती है. इसलिये वे बैंकिंग के करीब करीब सारे काम निजी बेंक में ही करते हैं.
यह सही भी है कि इस भीड़ के कारण बैंक कर्मचारी भी वेल्यबल कस्टमर की ओर कम ध्यान दे पाते हैं.
बेहतर रहेगा कि बैंक के ज्यादा तर कर्मचारी और अधिकारी वेल्यबल कस्टमर्स की केयर करें और भीड़ को आउटसोर्सिग एजेंसियों के भरोसे छोड़ दें. कुछ कर्मचारियों और अधिकारियों को इन एजंेंसियों की सख्त सुपरविजन के लिये तैनात कर दें ताकि समाज के इस तबके को भी वैसी ही शानदार सुविधाएं मिल सकें जैसी बैंक की शाखाओं में वेल्यबल कस्टमर्स को मिलती है. आउटसोर्सिग से बैंक को अपने कर्मचारी भी बेहिसाब नहीं बढ़ाने पड़ेंगे. क्योंकि बैंक मैनेजर को तो हर कर्मचारी का हिसाब देना पड़ता है. कर्मचारी कम रहेंगे तो वह भी अपनी शाखा को ज्यादा आसानी से लाभ में बता सकेगा.    

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