राजनीतिक दावपेंच है दिल्ली का संशोधन कानून

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2021-03-18 11:06:16


राजनीतिक दावपेंच है दिल्ली का संशोधन कानून

राजनीतिक दावपेंच है दिल्ली का संशोधन कानून
मोदी सरकार ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का मौका देखकर यह राजनीतिक दाव खेला है ताकि अरविंद केजरीवाल को सीमाओं में बांधा जा सके.
संविधान संशोधन 69 से धारा 239 एए और बीबी जोड़ी गई थी. दिल्ली के सभी मुख्यमंत्री केन्द्र के साथ तालमेल बना कर चले. केन्द्र और दिल्ली में अलग अलग सरकार को विवाद के घेरे में नहीं आने दिया. पर अन्ना आंदोलन से राजनीति में आए अरविंद केजरीवाल नाॅन कफर्मिस्ट के सैद्धातिंक चैले के साथ आए थे और उनका झुकाव वामपंथियों की ओर ज्यादा था. उन्होंने बुद्धिमानी और चतुराई का परिचय देते हुए राजनीति में एक शानदार प्रयोग कर डाला जो सफल रहा. आप पार्टी का कोई संगठन ढ़ाचा नहीं. बस चंद साथी चुने और कर दिया श्रीगणेश. सफल भी रहे. एक बार जीते तो कांग्रेस की बैसाखी से सरकार बना ली. फिर खुद ही गिरा  भी दी. फिर चुनाव लड़े तो ऐसी शानदार जीत मिली की किसी की जरूरत नहीं रही. वामपंथियों ने घेरा बना लिया और केजरीवाल की चैकड़ी ने एक एक कर सभी असहमत लोगों को छांट दिया. मोदी विरोध का तीखा चैला तो सदैव धारण करके ही रखा ताकि अलग पहचान बनी रहे. तीसरी बार शातिर राजनीति का ऐसा जाल बुना कि सब उसी प्रकार चकरा गये जिस प्रकार मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने पर चकरघिन्नी बन कर रह गये थे. यह मध्यप्रदेश की तरह अल्पसंख्यक वोटों का जादू था.
राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते वे कभी पंजाब तो कभी उत्तरप्रदेश में विस्तार का सपना देखते रहे और सरकारी खजाना बेहिसाब लुटाते रहे. केन्द्र सरकार से टकराते रहे और मामलों को सुप्रीम कोर्ट में बार बार ले जाते रहे.
राज्य में कैसे चले सरकार और किसकी है सरकार इस बात को जब टकराव हुआ तो मामला संविधान पीठ तक में गया. 2018 में धारा 239 बीबी के तहत फैसला सुनाया कि दिल्ली सरकार का मतलब चुनी हुई सरकार है यानि केजरीवाल सरकार. पर साथ ही यह हिदायत भी दी कि उप राज्यपाल बेवजह की दखलंदाजी नहीं करें. केजरीवाल जरूरी मामले उपराज्यपाल के समक्ष विधानसभा में रखने से पहले ही लायें ताकि टकराव न हो. अंतिम फैसला उपराज्यपाल का ही मान्य होगा.
लेकिन धारा 239 एए के प्रकाश में संविधान पीठ ने कहा कि इसके बारे में केन्द्र सरकार अलग से विस्तृत कदम उठाये और उन्हें लागू करवायें.
केजरीवाल ने अपने मतलब की बात पकड़ ली और वे कुछ मामले उपराज्यपाल के सामने तो रखने लगे लेकिन चतुराई से कई अहम राजनीतिक फैसले वे उपराज्यपाल के सामने नहीं ले जाते थे. वे संविधान पीठ की इस टिप्पणी की आड़ ले लेते थे कि उसने सभी मामले नहीं रखने को कहा था. सिर्फ जरूरी मामलों रखने को कहा था.
इस पर अक्सर विवाद होता और कई मामले उपराज्यपाल स्वयं बुलाते और उनके निर्णय बदल देते तो केजरीवाल हल्ला मचाने लगते कि उपराज्यपाल केन्द्र के इशारे पर चुनी हुई सरकार के काम में अड़ंगे डाल रहे हैं. ऐसे ज्यादातर मामलों अल्पसंख्यकों से जुड़े होते थे या फिजुलखर्ची के होते थे.
समय के साथ यह बात औझल कर दी गई कि संविधान पीठ ने धारा 239एए को लेकर विस्तृत आदेश देने को कहा था. ऐसा सुप्रीम कोर्ट को इसलिये करना पड़ा क्योंकि इस धारा में राज्यपाल और राष्ट्रपति के अधिकारों के बारे में तो कहा था पर उप राज्यपाल का जिक्र नहीं था. इसलिये उसकी मंशा उपराज्यपाल के अधिकारों के बारे में विस्तृत आदेश आदेश जारी करने की थी. दिल्ली के शासन प्रशासन को लेकर जो कानून बनाया गया उसमें उपराज्यपाल के अधिकारों पर विस्तार से पिन पाइंटेड चर्चा नहीं थी.
केन्द्र सरकार ने मौका देख धारा 239 एए में संशोधन कर दिल्ली संबंधी कानून की धारा 21, 24 और 44 में संशोधन कर यह संशोधन विधेयक्र लोकसभा में पेश कर दिया. इसमें  साफ कर दिया कि दिल्ली में सरकार का अर्थ उपराज्यपाल की सरकार  है. और चुनी हुई सरकार के मुखिया को सभी फैसले उपराज्यपाल की सहमति से ही लेने होंगे यानि हर फाइल उपराज्यपाल को पेश करनी होगी. उसी के बाद वे विधानसभा में रख सकेंगे. या लागू कर सकेंगे.
इस प्रकार केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के आधार पर केजरीवाल सरकार की सीमाएं बांध दी. लोकसभा में तो संविधान संशोधन बिल आसानी से पारित हो ही जाएगा. फ्लोर मेनेजमेंट में कुशल मोदी सरकार इसे राज्यसभा में भी पारित करवा लेगी. इससे तिलमिलाए केजरीवाल और उनके मंत्री आसमान सिर पर उठाये हुए हैं पर मामला संवैधानिक है इसलिये फैसला तो अदालत में ही होगा यह तय है. पर फिलहाल तो केजरीवाल पर नकैल कस ही गई है. अदालत जब फैसला लेगी तब देखा जाएगा.

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