महाराजा, राजा, मसनदें और बेचारा प्रजातंत्र
- राकेश दुबे, वरिष्ठ पत्रकार भोपाल
कहने को भारत में 1947 के बाद से लोकतंत्र आया है, इससे पहले गुलामी और उससे पहले राजे- रजवाड़ों का शासन इस देश ने भोगा है. सात दशक के बाद भी देश का प्रजातंत्र प्रजातांत्रिक ढांचे में नहीं ढल पाया है. प्रजातंत्र के मन्दिरों में आज भी समाज के अन्य वर्गों से आये प्रतिनिधि महाराजा-राजा के सामने कोर्निश बजाते नजर आते हैं. पुराने शासकों यथा “महाराजा”, “राजा”, “जागीरदार” से लेकर “ठिकानेदारों” के वंशज प्रजा के धन से निर्मित भवनों में शान से सुख भोग रहे हैं. अब इधर से उधर जाने के सुख के साथ अपने अभीष्ट साधने के लिए अपनी नजर राज्य की सर्वोच्च प्रजातांत्रिक पद की आसंदी पर लगाये हुए हैं. पिछले 7 दशको के कई बार ये तत्व सफल भी हुए, उस दौरान उनके मिजाज में कायम “ठसक” ने उन्हें कभी “प्रजातांत्रिक” नहीं होने दिया.
देश में प्रजातंत्र लाने और उसे कायम रखने का श्रेय बखानने वाले राजनीतिक दलों में भी दूर की कौड़ी की तरह प्रजातंत्र दिखता है. किसी एक की रूचि परिवारवाद के चलते मसनद पर ताउम्र मचकने में हैं तो दूसरे की रूचि सन्गठन को मनोनयन से चलाने की है. कोई नहीं चाहता कि दल में आंतरिक प्रजातंत्र कायम हो. कारण साफ है कैसे भी उस व्यवस्था पर कब्जा बनाये रखना है जिससे देश के संसाधनों का अपने और अपनों हित में उपयोग किया जा सकें. देश की खरीदी बेचीं जा रही धरोहरे इसका जीता जागता उदहारण हैं.
इन दिनों देश में जो कुछ घट रहा है, उसे प्रजातंत्र की कसौटी पर कसें तो उत्तर नकारात्मक ही आएगा. देश के एक सूबे में सरकार पलट का खेल किसी महाराजा की अगुवाई में होता है तो दूसरी तरफ से खेल का गोलकीपर कोई राजा होता है. पडौस के सूबे में किसी ठिकानेदार की पीढ़ी ऐसे ही खेल में जोर आजमाती है यहाँ भी किसी रियासत की महारानी अपने फतवे जारी करती रहती है. हद तो यह है संसद और विधानसभा की ओर जाती इन सामन्तो की पालकी को ढोने में जो कंघे लगे हैं. वे 70 साल में लहुलुहान हो गये हैं.
भारत में आज तक मतदान की कोई ऐसी निरापद पद्धति इजाद नहीं हो सकी है, जो चुनाव को जाति, धर्म, लोभ लालच और भय से मुक्त कर सके. महल, जागीर और ठिकाने में मतदाता सूची आदेश में बदल जाती है. इन्ही में से एक नई बाहुबली किस्म भी निकलती है, जो उनके वोट न गिरने पर मतदाता को गोली से गिराने की धमकी तक देता है. चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बड़ी और महत्वपूर्ण है पर उसके हाथ छोटे हैं. इन हाथों को ताकतवर बनाने में किसी भी राजनीतिक प्रभु की इच्छा नहीं है.
आज देश का प्रजातंत्र महाराजा, राजा जागीरदार और ठिकानेदारों की मसनद के नीचे सिसक रहा है. उसकी आम परिभाषा जनता के लिए जनता के द्वारा जनता का शासन न जाने कहाँ खो गई है. देश में शासकों की इनसे इतर जो नई पौध देश तैयार भी हो रही है, उसके “आइडल” भी महाराजा, राजा, जागीरदार और ठिकानेदार ही है. देश की वर्तमान अवस्था को देखते हए मसनदो पर मचकते लोगों को प्रजातांत्रिक व्यवस्था का प्रशिक्षण जरूरी है और इसी का नाम है व्यवस्था परिवर्तन.