कम से कम चुनाव में तो पारदर्शी हो जाएँ

Category : आजाद अभिव्यक्ति | Sub Category : सभी Posted on 2021-03-10 22:45:35


कम से कम चुनाव में तो पारदर्शी हो जाएँ

कम से कम चुनाव में तो पारदर्शी हो जाएँ
- राकेश दुबे, वरिष्ठ पत्रकार भोपाल
दो दर्जन से ज्यादा विधायक अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो गये. इस परिवर्तन की अगुआई फिल्म अभिनेता मिथुन चक्रवर्ती ने की. सवाल यह है  क्या सिर्फ पश्चिम बंगाल में चुनाव हो रहा है?  नहीं तो फिर भगदड़ सिर्फ वहां ही क्यों ? इस सवाल के जवाब में कोई भी कुछ भी  कहेगा. दरअसल यह पांच राज्यों में विधानसभा के लिए नहीं दिल्ली सिंहासन पर कब्जा निरतर रखने की कवायद का हिस्सा है. राजनीति में यह प्रवृति सामान्य है, पर प्रजातंत्र के लिए यह सब बहुत अच्छा नहीं है.
दूसरी बात  मीडिया और विशेषकर सोशल मीडिया में अधिकतर चर्चा बंगाल की क्यों हो रही है? क्या देश की राजनीति में अन्य चार प्रदेश कोई असर नहीं रखते? इन सवालों  के जवाब भी पश्चिम बंगाल से मिलता दिख रहा है. जिस तरह की सियासी जंग चल रही है, उसका यह उदाहरण अकेले ही सच से सामना कराने को पर्याप्त है.
फटाफट चैनलों पर एक दृश्य बार-बार दिखाया जा रहा था. इसमें नॉर्थ 24  परगना की निवासी 80  बरस से ऊपर की उम्र वाली एक महिला अपना घायल मुंह दिखाकर कहती है, ‘मुझे उन लोगों ने मारा. मैं मना करती रही, पर वे मारते गए. मुझसे सांस नहीं ली जा रही. पूरे शरीर में जोर का दर्द हो रहा है.’ इस  महिला का चेहरा, वेदना से कंपकंपाती आवाज और अस्पष्ट शब्द पीड़ा सहज ही दिल में उतर जाने वाला आख्यान आनन-फानन में रच देते हैं. उसकी यह दशा किसने बनाई?
कारण उसका बेटा बताता है. ”मैं भाजपा का कार्यकर्ता हूं. मारने वाले तृणमूल कांग्रेस के लोग थे.’‘ भाजपा ने पूरे प्रदेश में पोस्टर टांग दिए. उनसे महिला का सूजा हुआ चेहरा झांक रहा था और मोटे हर्फों में सवाल लिखा था- ‘क्या यह बंगाल की बेटी नहीं है?’ खुद को बंगाल की बेटी बताने वाली ममता बनर्जी ने कुछ दिनों पहले ही कहा था, ‘बंगाल पर बंगाली राज करेंगे, बाहरी नहीं’. उनको यह जोरदार जवाब है, पर सवाल यह है कि राजनीति और विशेष कर पश्चिम बंगाल की राजनीति फिर क्यों हिंसा की और लौट रही है ?
ऐसी घटनाओ के  फुटेज बिकाऊ होते है साथ ही गला फाड़कर अपने दलों का दलदल बिखेरने वाले प्रवक्ता शोर. एक ऐसा माहौल बना देता है. जो अंतिम परिणाम की आशका से भयभीत कर देता है. तृणमूल ने इस सारे मामले में दावा किया है कि यह सियासी अदावत नहीं, घरेलू हिंसा का मामला है. बात गले नहीं उतर रही फिर भी, पुलिस भी इस पर लगी मोहर उनके समर्थन में पीड़िता के अन्य परिजन ‘बाइट’. घरेलू हिंसा की बात भाजपा प्रवक्ता की नजर में यह सत्तारूढ़ दल के दबाव से उपजा बयान है, तो  तृणमूल कांग्रेस पार्टी के बयानवीर बुजुर्ग महिला और उसके बेटे को बिका हुआ साबित करने पर आमादा दिख रहे थे. पुलिस को, तो भाजपा पहले से ही  तृणमूल कांग्रेस का एजेंट साबित कर चुकी है. इसके उलट तृणमूल सीबीआई, ईडी और आयकर विभाग को केंद्र का पालतू तोता बताती है.
 कोलकाता के पूर्व पुलिस आयुक्त राजीव कुमार के मामले तो सभी की स्मृति में हैं. ऐसे ही, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयप्रकाश नड्डा के काफिले और वाहन पर हुए हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने तीन आईपीएस अफसरों को पश्चिम बंगाल काडर से वापस बुला लिया था. अपने आप में यह अनूठा और बेहद कड़ा फैसला था, पर सिलसिला अब भी किसी न किसी रूप में जारी है. बंगभूमि का दुर्भाग्य है कि यहां आए दिन नए विवादों की लपटें उठ रही है. राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकने की कोशिश में लगे  हैं. सब जानते हैं. भाजपा किसी भी कीमत पर इस प्रदेश पर कब्जा चाहती है और ममता बनर्जी अपना कब्जा बरकरार रखने जी-जान लगाए हुई हैं.
इस चुनाव लोकतंत्र का ऐसा तमाशा बनेगा, यह अकल्पनीय था. बंगाल  सुर्खियों में है और अन्य राज्य भाजपा को आसान नजर आते है. ऐसे तमाम प्रश्न हैं, जो चुनाव-दर-चुनाव पूछे जाते रहे हैं. समय आ गया है, जब संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र खुद को  विशेष कर चुनाव के दौरान पारदर्शी बनाने की पहल करें.

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