निजीकरण की स्पष्ट घोषणा का अर्थ समाजवाद का विरोध नहीं

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2021-03-09 09:32:16


निजीकरण की स्पष्ट घोषणा का अर्थ समाजवाद का विरोध नहीं

निजीकरण की स्पष्ट घोषणा का अर्थ समाजवाद का विरोध नहीं
पहली बार हम देख रहे हैं कि देश में निजीकरण की बात हो रही है. समाजवाद की तुरप का पत्ता कहे जाने वाले राष्ट्रीयकरण की जगह राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजी करण की बात की जा रही है. इसका विरोध भी हो रहा है पर समर्थन नहीं. समर्थन की जिनसे अपेक्षा की जाती है वे एकदम चुप हैं. इसलिये चारों तरफ विरोध की बात ही होती है और उसे समर्थन ही नजर आता है. पर क्या यह निजीकरण बेवज किया जा रहा है? जी नहीं. हमने राष्ट्रीयकरण की अति कर दी थी जिससे देश की सारी व्यवस्थाएं धीरे धीरे पटरी से उतरती दिख रही थी. इससे आगे घटाटोप अंधेरा नजर आने लगा था तब यह फैसला सोच समझ कर लिया गया. पहले बैंकों का विलय होता था निजीकरण नहीं. पिछले बजट में दो बैंकों के निजीकरण की बात की गई थी पर किया नहीं. हां एक डुबते बड़े बैंक को एक विदेशी बैंक को सौपा गया. इससे बैंक डूबने से बच गया और विदेशी बैंक को भारत में काम करने के ज्यादा अवसर मिलने की गुंजाइश बन गई. इसका ज्यादा विरोध नहीं देखा गया. इस कदम के पहले से ही चार राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजीकरण की बात देश में शुरू हो चुकी थी और जैसा की कहा जा चुका है उसका विरोध भी कर्मचारी यूनियनों और साम्यवादी दलों की कर्मचारी और मजदूर यूनियनों ने शुरू कर दिया था. उनके साथ समूचा विपक्ष का समर्थन भी आ चुका है. उसके बाद भी मोदी सरकार ने कदम  पीछे नहीं खीचें हैं. वरिष्ठ पत्रकार ने फेसबुक पर अपने एक आलेख में अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिमलिट्ज से हुई मुलाकात के दौरारा हुई बातचीत के हवाले से कहा है कि ‘‘ पूरी दुनिया में कितनी भी मंदी आ जाए आपके देश (भारत) का बुरा नहीं होगा ........ अर्थव्यवस्था नहीं डुबेगी, क्योंकि आपके यहां निर्बाध पूंजीवाद नहीं है. भारत के लोगों में बचत करने की प्रवृति है तथा आपके यहां पब्लिक सेक्टर भी उतना ही मजबूत है जितना कि निजी सेक्टर’’.
मेरी राय में  जोसेफ स्टिमलिट्ज का मानना था कि भारत में दोनों का संतुलन है. लेकिन आज क्या ऐसा वास्तव में नजर आता है? कम ये कम मेरी नजर में तो नहीं. किसी भी सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त संस्था के कर्मचारी और अधिकारी पर उसकी गलती के लिये कार्यवाही करना असंभव जैसा है. कानून हैं व्यवस्था भी है जिसके तहत कार्यवाही हो सकती है. पर अपील पर अपील और देरी सबको बेअसर कर देती है. यह आम आदमी तक को समय समय पर अनुभव होता है.
इसलिये बैंकिंग व्यवस्था को लेकर मोदी सरकार ने कई अघ्ययनों और रिपोर्टो को आधार बना कर राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्या कम करने का कदम उठाया और उसी बीच यह निजीकरण का कदम भी आजमाने का इरादा बनाया.
मोदी सरकार के निजीकरण का राष्ट्रीयकरण के समर्थक विरोध कर रहे हैं लेकिन अभी निजीकरण उस सीमा तक नहीं पहुंचा है जिसे निर्बाध कहा जा सके. उम्मीद यही की जानी चाहिये कि मोदी सरकार दोनों के बीच संतुलन बनने के बाद ऐसे कदम उठाती रहेगी जिससे दोनों के बीच संतुलन बना रहे. देश के प्रथम प्रधानमंत्री ने भी यही संतुलन बनाने का पक्ष लिया था. पर बाद की सरकारों के चलते यह असंतुलन पैदा हो गया जिसे मोदी सरकार ठीक करने की कोशिश कर रही है. 

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