महिला विमर्श - ऐसे न्याय को न्याय नहीं कहा जा सकता

Category : आजाद अभिव्यक्ति | Sub Category : सभी Posted on 2021-03-05 02:34:52


महिला विमर्श - ऐसे न्याय को न्याय नहीं कहा जा सकता

महिला विमर्श - ऐसे न्याय को न्याय नहीं कहा जा सकता
- राकेश दुबे, वरिष्ठ पत्रकार भोपाल  
देश में बड़े जोर- शोर से ८ मार्च को महिला दिवस मनाया गया. इससे पूर्व आया एक न्यायालयीन निर्णय एक बार सोचने पर विवश और विचलित कर रहा है. यह बात विचलित करती है कि यदि किसी नाबालिग लड़की के साथ ज्यादती करने वाले व्यक्ति को पीड़िता के साथ विवाह करने का अवसर न्यायिक व्यवस्था द्वारा दिया जाये. इसे कैसे न्याय की संज्ञा दी जाये ?
वास्तव में यह प्रस्ताव शीर्ष अदालत के स्तर पर लैंगिक संवेदनशीलता को नहीं दर्शाता. हालांकि, अदालत ने यह भी स्पष्ट किया है कि आरोपी को पीड़िता के साथ शादी के लिये मजबूर नहीं किया जा रहा है. फिर भी  यह विचार फिर भी अमान्य व असंवेदनशील  की कहा जा रहा है. सही मायनो में अदालत की यह टिप्पणी न केवल अपराधियों का हौसला बढ़ाती है बल्कि महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा को कमतर दर्शाती है.
अनेक अर्थों में इस तरह का प्रस्ताव देना मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के वर्ष 2020 में दिये गये उस आदेश से भी बदतर है कि इस शर्त पर छेड़छाड़ के आरोपी को जमानत देना कि वह पीड़ित युवती को राखी बांधने का अनुरोध करेगा. दरअसल, यह पहला अवसर नहीं है कि महिलाओं से जुड़े किसी मामले में ऐसा सुझाव आया हो, कई अन्य सुझाव भी लैंगिक संवेदनशीलता की दृष्टि में खरे नहीं उतरे हैं. गत वर्ष जुलाई में भी उड़ीसा उच्च न्यायालय ने नाबालिग से बलात्कार के आरोपी व्यक्ति को उस समय शादी के लिये जमानत दे दी थी, जो उस समय तक वयस्क हो चुका था.
दरअसल देश के कानून में  जबरन या सहमति से शारीरिक संबंध बनाने के मामले में सख्त दंड के प्रावधान हैं. यदि पीड़िता नाबालिग है तो अपराध और गंभीर हो जाता है, क्योंकि वह कानूनन वैध सहमति नहीं. अक्सर पीड़िताओं को कथित सामाजिक कलंक के दबाव में कई तरह के अनैतिक समझौते करने के लिये बाध्य किया जाता रहा है. कई बार लोकलाज की दुहाई देकर समाज के दबाव व डर के चलते यौन उत्पीड़न करने वाले व्यक्ति से शादी करने के लिये मजबूर किया जाता रहा है. यह विडंबना है कि कथित सामाजिक दबाव के चलते ऐसे विवाह को मान्यता दे दी जाती है. विडंबना यह है कि न्यायिक व्यवस्था भी ऐसे विवाह को मंजूरी दे देती है, वह भी न्याय के नाम पर. कितना औचित्यपूर्ण यह न्याय कह जायेगा.
बदलते वक्त के साथ रिश्तों में कई तरह की जटिलताएं सामने आ रही हैं. शादी करने के झूठे आश्वासन देकर जबरन रिश्ते बनाने या लिव इन पार्टनर के मामलों में इस तरह के आरोप सामने आते रहे हैं. पीड़िता लिव पार्टनर रहने पर इस तरह के आरोप लगाये तो यह रिश्तों में खटास के मामले हो सकते हैं. लेकिन एक सभ्य समाज की मान्यताओं का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता. किसी भी समाज में बलात्कार अपराध का सबसे घृणित रूप है जो किसी भी स्त्री के शरीर, मन और आत्मा को रौंदता है. ऐसे में अपराधी सख्त सजा का हकदार होता है. ऐसी स्थिति में किसी अपराधी को उसके वीभत्स कृत्य को कानूनी मंजूरी देकर इस तरह के अपराधों को प्रोत्साहन नहीं दिया जाना चाहिए.
अपने ऐतिहासिक न्यायिक फैसलों के बावजूद भारतीय न्यायपालिका की लैंगिक संवेदनशीलता को लेकर सवाल उठते रहे हैं. उसे पुरुषों के वर्चस्व वाली बताया जाता रहा है. शीर्ष अदालत में महिला न्यायाधीशों की संख्या बेहद कम है. शीर्ष अदालत में 34 स्वीकृत पदों के मुकाबले दो महिला न्यायाधीश ही हैं. एक सितंबर, 2020 तक 25 उच्च न्यायालयों में स्वीकृत 1079 पदों के मुकाबले केवल 78 महिला न्यायाधीश ही थीं. इस तरह के विवादित प्रकरणों को टालने के लिये जरूरी है कि देश की अदालतों में पर्याप्त संख्या में महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति हो.
यदि महिलाओं के साथ यौन हिंसा के मामलों में ऐसे अंसवेदनशील सुझाव हकीकत बनें तो इससे अपराधियों के हौसले बुलंद होंगे. सही मायनो में इस तरह के सुझाव जब अदालत से होकर आते हैं तो समाज में इसका असर व्यापक हो जाता है. अदालत ने जिस अभियुक्त को पीड़िता से विवाह करने का विकल्प दिया, वह पहले से ही शादीशुदा है. ऐसे सुझाव न केवल चैंकाने वाले हैं बल्कि परेशान करने वाले भी हैं. यह न केवल पीड़िता का अपमान है, बल्कि इससे उसके साथ हुए अपराध की भी अनदेखी होती है जो मानवता की कसौटी पर अन्याय जैसा ही है.

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