गोदी मीडिया, भक्त मीडिया, मोदी विरोधी मीडिया, भाजपा या कांगे्रस समर्थक अथवा विरोधी मीडिया जैसे शब्द खूब प्रचलन में हैं. इसी के साथ चर्चा में है मीडिया के अस्तित्व पर मंडराते खतरे. मीडिया के संचालन में जुड़ गये भारी भरकम खर्चो ने इसकी आत्मा की हत्या कर दी है. उसे आर्थिक सहारे की जब जरूरत होती है तो हर मीडिया प्लेटफार्म को इसी प्रकार के प्रचलित शब्दों वाले मीडिया में शामिल होना पड़ता है. आजाद, निष्पक्ष मीडिया का संचालन असंभव सा हो गया है.
ऐसे समय में गांधीजी को याद किया जा सकता है जिन्होंने बिना तामझाम वाले विचार प्रेरित बिना तामझाम वाले मीडिया प्लेटफार्मों का संचालन किया. इसमे जन सहयोग और समान विचारों वाले उनके अनुयायियों की भी विशेष भूमिका रही. इन सबके बाद भी उन्होंने वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ मितव्ययिता से अपने मीडिया को चलाने पर जोर दिया. फिजूलखर्ची और चमक दमक से दूरी बनाए रखी. यही आज भी किया जा सकता है. जो ऐसा करेगा वही मीडिया प्लेटफार्म टिकेगा. यह मेरा मानना है. इसे ही मैं गांधी वादी मीडिया कह रहा हूं. उसके गांधीजी के समर्थक होने या न होने से ज्यादा गहरा संबंध नहीं है. इसका संबंध साध्य और साधन की पवित्रता से है जो हमें हमारी सनातन संस्कृति सिखाती है. तामसी खाओेगे तामसी बनोगे.