तीन कृषि सुधारों पर किसान आंदोलन की डोर मोदी विरोधियों के हाथ मे है. इनका उद्देश्य मोदी को नीचा दिखाना है किसानों की भलाई जिनका लक्ष्य है वे राजनीत से संचालक मोदी विरोधी आंदोलनकारियों से दबे हुए हैं. वे किसान एकता के नाम पर मनमानी कर रहे हैं. इसका ताजा प्रमाण है लालकिले पर तिरंगे का अपमान करने वालों, आरोपी दीप संधु और उसके साथियों को ये नेता जानते थे पर एकता के नाम पर उन्हें छिपाए रहे. अब सारा दोष सरकार और भाजपा पर डाल रहे हैं. ये भाजपा से दूरी बताने का ढ़ोंग कर रहे हैं क्योंकि वे जानते थे कि संधु भाजपा से जुड़ा रहा है तो उन्होंने उसे क्यों नहीं निकाला. क्योंकि अंदर ही अंदर वे जानते थे कि उन्हें दीप संधु से क्या करवाना है. अब उसे मख्खी की तरह निकालने का ढ़ोंग कर रहे हैं.
इससे पहले उन्होंने तीन कानूनों के विरोध में आंदोलन खड़ा किया पर उसमे एमएसपी को जोड़ दिया जिसका इन कानूनों में कहीं उल्लेख नहीं है. मंडी व्यवस्था के विकल्प के तौर पर निजी मंडियों की बात कानूनों में की गई है पर उसे सरकारी मंडियों के खत्म करने की काल्पनिक आशंका से जोड़ दिया. सरकार उलझ कर रह गई और उसे कहना पड़ा कि एमएसपी खत्म नहीं होगी यह लिखकर देने को तैयार है. पर इसकी आड़ में एमएसपी पर अनिवार्य खरीद की ऐसी मांग खड़ी कर दी जिसे कोई सरकार पूरी नहीं कर सकती.
सरकार ने क्लाज बाई क्लाज की बात कही. कमेटी की बात की पर दोनों को ठुकरा दिया. कमेटी की बात तो एक बार भी नहीं मानी और कुछ सुधार बताए पर उनसे भी पलट गए और तीनों कानूनों की जिद पर अड़ गये.
सरकार ने कुछ अंतराल बाद फिर बैठक बुलाई तो दो कानून एजेंडे में जुड़वा लिये. एक था पराली जलाने का और दूसरा था बिजली बिल का जो ड्राफ्ट मात्र था. दो और बिंदू थे तीनों कानून और एमएसपी पर अनिवार्य खरीद. वार्ता का दौर चला तो तीनों कानून और एमएसपी पर तो बात ज्यादा हुई ही नहीं सारा जोर पराली और बिजली कानून पर रहा. सरकार झुकी और इन पर आश्वासन दे दिया कि बिजली कानून नहीं लाया जाएगा और दिल्ली की हवा में जहर घोल रही पराली के जलाने के मामले पर कार्यवाही नहीं होगी. जो हो गई है उसे वापस लिया जाएगा. बाकी दो मांगों पर बात नहीं बढी. चर्चा के अगले दौर में दोनों पुरानी मांगों पर बात भी नहीं छेड़ी और पुलिस द्वारा परेशान करने, एनआईए और ईडी के नोटिसों से परेशान करने की बात लेकर बैठ गये. सरकार ने किसानों के साथ ज्यादति न होने की बात कही तो उसके बाद बचे मुद्दों पर बात ही नहीं की. अगला दौर आया त ो सरकार तीनों कानूनों को एक डेढ साल तक निलंबित करने और तीनों कानूनों पर कमेटी के माध्यम से बात करने का प्रस्ताव लेकर आई. उसे सकारात्मक बताते हुए वार्ता खत्म हुई पर अगले दिन शाम को ही एक राय से इस प्रस्ताव का ठुकराने की बात मीडिया को बता दी. तब सरकार सख्म हुई और कह दिया कि तीनों कानून वापस नहीं लिये जा रहे हैं. सरकार ने जो प्रस्ताव रखा है यह सबसे बड़ी छूट है उस पर किसान राजी हो या उनके पास कोई अन्य प्रस्ताव हो तो लेकर आएं. इसी के साथ बात खत्म कर दी.
इसके बाद तिरंगे के अपमान की शर्मनाक घटना हुई तो सरकार सख्म हुई गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरु हुआ, लाइट पानी रोका गया तो किसान झुके पर नाटकबाज टिकैत के आंसुओं के आगे सरकार नरम पड़ी और किसान खापों ने बढ़ कर समर्थन दिया तो आंदोलनकारियों को हिम्मत मिली. आज वे फिर पुरानी ताकत जैसे बोल रहे हैं. तीनों कानूनों को वापस लेने की बात कर रहे हैं. गिरफ्तार लोगो की रिहाई की मांग कर रहे हैं. इन गिरफ्तार लोागों से ही षडयंत्र खुलेगा इससे किसान नेता डरे हुए हैं. इसलिये रिहाई पर अड़ रहे हैं.
सरकार को उनकी बात नहीं माननी चाहिये और तीन कानूनों पर कमेटी बना कर उसमें चर्चा करने और समाधान आने तक तीनों कानूनों को निलंबित करने की बात पर अड़े रहना चाहिये. सरकार पहले भी किसानों को कह चुकी है कि एक डेढ साल बात तो है पर इसे कमेटी का काम पूरा होने तक बढ़ाया जा सकता है. अगर सरकार इस पर झुकी और एमएसपी के जाल में उलझी तो यकीन मानिये किसान एमएसपी का वादा भी ले लेंगे और तीनों कानूनों की वापसी की मांग पर अड़ कर आंदोलन भी खत्म नहीं करेंगे. इसलिये सरकार साफ कर दे कि कमेटी की बात मान लो फिर उसी में सारी बातों पर विचार कर लेंगे. अन्यथा आप आंदोलन पर बने रहो. शांति की गारंटी तुम्हारी है. अगर लोगों को परेशानी हुई तो सरकार उसके आलोक में उचित कदम उठाने को आजाद है. यही बात तो सुप्रीम कोर्ट ने भी ही है कि सरकार अपना विवेक इस्तेमाल कर फैसले करे. बार बार हर बात को लेकर अदालत में नहीं आए.
अब देखना यही है कि विवेक का इस्तेमाल कर ट्रैक्टर रैली की इजाजत देकर अपनी भद पिटवा चुकी पुलिस इससे क्या सबक लेती है और आने वाले समय में अपने विवेक का किस प्रकार से कितना बेहतर इस्तेमाल करती है.
पुलिस अपना काम करे और सरकार अपना. वह तीनों कानूनों पर बातचीत को सीमित रखे और अपने प्रस्ताव को मनवाए या किसान जब कोई बेहतर प्रस्ताव दे तो उस पर विचार कर पहले किसानों की घर वापसी फिर वादे मुताबिक कार्यवाही की रणनीति अपनाए. अन्यथा मोदी विरोध में अंधे हो चुके किसान नेता आंदोलन को खत्म नहीं होने देंगे. वे विवेकवान किसान नेताओं को दबा कर अपना एजेंडा ही चलाते रहेंगे जैसा की वे अब तक करते रहे हैं.