छब्बीस जनवरी को गणतंत्र दिवस पर हमेशा की तरह दुनिया ने हिंदुस्तान की सांस्कृतिक विरासत और विकास की झलक देखी. आर्थिक प्रगति की झलक देखी. विश्व शक्ति की तरह उभरते हिंदुस्तान की सेनाओं के प्रदर्शन को देखकर सुखद आश्चर्य के साथ सराहना की. राफेल की के करतब इस बार नवीनतम आकर्षण का केन्द्र रहे. करीब दस बजे तक यह सब चला.
लेकिन इसी बीच देशद्रोहियों के षड्यंत्रों की छिटपुट खबरें आने लगी थी. ग्यारह बजे तक तो पूरा देश इन देशद्रोहियों की करतूतों को देखकर दुख और गुस्से से उबलने लगा था. करीब दस हजार लोगों की भीड़ जो किसान आंदोलनकारियों के रूप में एकत्रित हुई थी उसका हिंसा का तांडव पूरी दुनिया देख रही थी. इनके साथ करीब पचास से ज्यादा ट्रैक्टर हत्यारे चालकों के हाथों से आतंक का पर्याय बने नजर आ रहे थे. वे पुलिस को कुचलने की कोशिश कर रहे थे. रास्तों में लगे बेरिकेट्स को तोड़कर उग्र भीड़ के लिये रास्ते साफ कर रहे थे. भीड़ पुलिस वालों को मारते पीटते आगे बढ़ रही थी. पुलिस वाले घायल हो रहे थे. भीड़ दिल्ली में एकाधिक स्थानों पर तांडव कर रही थी. एक हिस्सा लाल किले पर जा पहुंचा. उसमें से एक युवक आगे आया. वह उस ध्वजदंड पर चढने लगा जिस पर प्रधानमंत्री हर साल राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराते हैं. युवक थोड़ा चढकर झंडा मांगता है तो एक युवा उसे कम्युनिस्ट पार्टी का लाल झंडा देने की कोशिश करता है तो चढ़ने वाला युवक हाथ से अलग कर देता है. फिर एक अन्य युवक उसे तिरंगा देता है तो वह चढ़ने वाला युवक उसे हाथ में लेकर दूर फैंक देता है. फिर उसे धार्मिक झंडा और किसानों का झंडा देता है तो युवक उपर चढ़ कर पहले धार्मिक झंडा लगा देता है. उसी के बगल में किसान आंदोलन का झंडा भी लगा दिया जाता है. युवक उतर जाता है. भीड़ का बड़ा हिस्सा तब तक लाल किले में घुस जाता है और किले के विभिन्न गुंबदों पर किसान आंदोलन और धार्मिक झंडे नजर आने लगते हैं. भीड़ तोड़फोड़ और लूटपाट करती निकल जाती है. बाहर झंडा फहराने वाला युवक और भीड़ भी धीरे धीरे निकल जाती है. न किसी को रोका जाता है न कोई गिरफ्तारी की जाती है. लगता यह है कि खुफिया पुलिस किसी का पीछा भी नहीं करती है ताकि समय पर उनकी गिरफ्तारी की जा सके. शाम तक शांति हो जाती है. उल्लेखनीय बात यह नजर आती है कि भीड़ सिर्फ पुलिस वालों पर हमले करती है. कोई आगजनी नहीं न कोई लूटपाट. तोड़फोड़ भी बेरीकेट्स की और अवरोध में खड़ी की गई बसों व अन्य चीजों की होती है. इससे साफ है कि भीड़ का नापाक इरादा केवल लाल किले पर अपने झंडे लगाना और उसमें लूटपाट तथा तोड़फोड़ ही था. यह साफ बताता है कि इसकी घटना का षड्यंत्र बहुत बारीकी से तैयार किया गया था. यह अचानक उमड़ी भीड़ नहीं थी.
झंडा लगाने वालों दीप संधु और पंजाब के किसी युवा जगराज का नाम उभरता है. पर दीप संधू के तो इंटरव्यू तक सामने आ जाते हैं जिसमें वह इस कृत्य को स्वीकारता है. वह साफ कर देता है कि उसके गुट ने इस बात की जानकारी आंदोलनकारियों को कई बार दी थी वे लाल किले पर जाएंगे. इससे कम कुछ भी उन्हें मंजूर नहीं है. पर आंदोलनकारियों ने इसकी जानकारी सरकार और पुलिस को नहीं दी न इस बात में सहयोग किया कि इनको समय पर हिरासत में डलवा दें ताकि इस प्रकार के शर्मनाक कृत्य को रोका जा सके.
आंदोलनकारी तो बस सब बातों को छिपा गये और अधिकांश भीड़. उनके नेताओं ने ट्रैक्टरों के साथ निर्धारित रास्तों से मार्च निकाला. ताकि कोई उन पर शक न कर सके न आरोप लगा सके. जब विवाद बढ़ा तो टिकैत जैसे बड़बोले नेता कहने लगे कि सरकार की मिली भगत थी. उसने उग्र भीड़ पर गोली चला कर उसे रोका क्यों नहीं. उपद्रवकारी सरकार और भाजपा के ही लोग थे. इसके प्रमाण में वे दीप संधू के उन पुराने फोटुओं को बताते है जो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के साथ थे. उसे भाजपा के सांसद सनी देवल का स्टार प्रचारक बताते है. इसी के तौर पर सनी देवल ने उसे कभी प्रधानमंत्री और गृहमंत्री से उनके आवासों पर मिल वाया था. दीप संधू की गतिविधियों को देश सनी देवल दिसंबर के शुरू में ही बता चुके थे कि उनाक दीप सुंधू से कोई संबंध अब नहीं है. दीप संधू आंदोलनकारियों के लिये अंजान नहीं था न उसका दल अनजान था. वे पंजाब में आंदोलन के समय समय से सक्रिय था और दिल्ली की बार्डर पर भी वही सक्रिय था. वह पहले भी उग्र विचारों का था और उसमें कोई बदलाव नहीं आया था.
पर जैसा की हमेशा शक जताया जाता रहा है कि आंदोलन के नेताओं में कई प्रमुख ऐसे उग्रविचारों वाले संगठन और नेता हैं जो सरकार के वार्ता के हर प्रयास को बहुमत और आमराय के नाम पर फेल कर देते हैं. उनका लक्ष्य किसानों की भर्लाी नहीं मोदीजी और भाजपा का विरोध है. वे साम्यवादी और जिहादी मानसिकता के हैं. उसके बाद भी आंदोलनकारी नेता एकता के नाम पर उन्हें आस्तीन में सांपों की तरह पालते रहे और अब कसमसा रहे हैं.
आखरी बात ट्रैक्टर रैली के लिये 26 जनवरी के तय किये जाने की है. छब्बीस जनवरी देश के गौरव का दिवस है. उसमें मित्र देशों के प्रमुख खास मेहमान के तौर पर आते हैं. दुनिया का ध्यान इस पर रहता है. विश्वव्यापी प्रसारण होता है. इस पर आंदोलन होगा तो दुनिया की नजर जाएगी. देश की बदनामी होगी. मोदीजी की बदनामी होगी. यही सब तो शाहीनबाग के समय हुआ था. लंबे समय से शाहीनबाग में आंदोलन चल रहा था. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को भारत यात्रा पर आना था. उससे ठीक पहले एक अन्य स्थान पर शाहीनबाग जैसा धरना खड़ा करने की कोशिश की गई जिससे टकराव पैदा हुआ. पुलिस पर पिस्तोल तक तानी गई. पुलिस ने संयम का परिचय दिया और चुप रही. पर जो तनाव पनपा उस के आधार पर ट्रंप की मौजूदगी में दंगा भड़का दिया. जिसकी परिणिति करोड़ों रूपये की संपत्ति और पांच दर्जन से ज्यादा लोगों के मारे जाने में हुई. सारे दंगे को देशी और विदेशी फंडिंग थी यह अब कोई छिपी बात नहीं है.
इस छब्बीस जनवरी के घटनाक्रम में भी यही सब नजर आ रहा है ऐसा ज्यादातर लोगों का विश्वास है.
देश का दुर्भाग्य यह है कि पुलिस कानून के तहत जो कार्यवाही करने जा रही है उसका भी विरोध किया जा रहा है यानि देश का एक तबका ऐसा भी है जो खुल आम भले ही न बोल रहा हो पर उसे मन ही मन इस घटना पर गर्व सा है और इसे वह अपनी उपलब्धि मानता है. इसे देशद्रोह जैसा न माने तो क्या कह सकते हैं.