संवैधानिक अवधाराणों का दुरुपयोग है आशंकाओं पर जन्में शांतिपूर्ण आंदोलन

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2021-01-26 00:48:19


संवैधानिक अवधाराणों का दुरुपयोग है आशंकाओं पर जन्में शांतिपूर्ण आंदोलन

गणतंत्र दिवस संविधान प्रदत आजादियों और अधिकारों तथा कर्तव्यों पर विचार करने का एक अवसर भी प्रदान करता है. इस संदर्भ में शाहीनबाग आंदोलन और किसान आंदोलन विचार विमर्श का विषय बनते हैं.
एक शांतिपूर्ण आंदोलन था शाहीनबाग का एनआरसी और सीएए विरोधी आंदोलन. इसमें आशंका थी कि सीएए के माधम से बाहरी देशों से आने वाले मुसलमानों को षडयंत्रपूर्वक रोका जा रहा है और एनआरसी के माध्यम से घुसपैठियों के नाम पर मुसलमानों को हिंदुस्तान से निकालने की साजिश की जा रही है. सीएए पड़ोसी देशों से आ चुके हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध ईसाई धर्मावलंबियों को नागरिकता देने की अवधि कम की गई थी और कहा थी कि यदि ये धार्मिक उत्पीड़न के कारण आये हैं तो इन्हें कम अवधि में ही हिंदुस्तान की नागरिकता मिल जाएगी. इसमें मुसलमान शामिल नहीं थे और कहा गया था कि ज्यादा समस्या पाकिस्तान और बंगलादेश से आये शरणार्थियों के साथ है और ये दोनों देश इस्लामी देश हैं इसलिये वहा मुसलमानों के साथ धार्मिक उत्पीड़न संभव नहीं है. वैसे इन देशों से आने वाले मुसलमानों को नागरिकता से रोका नहीं गया था. बस उनके लिये वही समयावधि लागू हो रही है जो बाकी देशों से आने वालों के साथ लागू होती है. यह भी कहा गया कि सीएए नागरिकता देने वाला कानून  है लेने वाला नहीं फिर भी खूब आंदोलन हुआ. दिल्ली में जन्मे इस आंदोलन ने देशभर में अपना ठिकाना बना लिया था. सुप्रीम कोर्ट का कहना रहा है कि शांतिपूर्ण हो रहे धरना प्रदर्शन को शक्ति के प्रयोग से नहीं हटाया जा सकता. इसलिये प्रशासन के हाथ बंधे रहे. दिल्ली के आंदोलन का अंत दिल्ली के दंगों के साथ हुआ जिसमें पांच दर्जन से ज्यादा जानें गई और करोड़ों की संपति का नुकसान हुआ. दिल्ली में आंदोलन खत्म होने के साथ सारे देश में यह सिमट कर खत्म हो गया. यह बात और है कि उसे पुनर्जीवित करने के जीतोड़ प्रयास अभी भी हो रहे हैं.
अब एक और आंदोलन किसान आंदोलन के नाम पर खड़ा किया गया है. हजारों की संख्या में ट्रैक्टर और ट्रालियां दिल्ली की सीमा पर जमा हैं. इनके साथ आए किसानों की संखया भी लाखों में हो सकती है. दबाव बनाने के लिये ट्रैक्टर रैली आयोजित हो रही है. इससे सरकार और प्रशासन काफी सहमे हुए. अब उनका नया दावा है कि ये किसान संसद को घेरने के लिये पैदल मार्च करेंगे. कहीं ये दिल्ली में जम गये और आंदोलन की घेराव, चक्काजाम जैसी विधाओं को आजमाने लगे या हिंसक हो गये तो क्या होगा. सोच कर चिंता होती है. आंदोलन पर जिनका पर्दे के पीछे से नियंत्रण है वे यही चाहते हैं क्योंकि उन्हें किसानों के हितों से कहीं ज्यादा मोदी को हटाने की है. इस प्रकार के आंदोलन हिंसक हो जाएं तो उन्हें लगता है कि उनकी राह आसान हो जाएगी.
यह किसान आंदोलन भी शाहीनबाग आंदोलन की तरह कल्पनाओं पर आधारित है. आजादी के सत्तर साल  बाद भी किसानों की दशा सुधारने के अभी तक के प्रयास बेनतीजा रहे हैं. बातें बड़ी बड़ी हुई पर काम धेले भर का नहीं किया. कमेटियां बनी, आयोग बने पर सबकी सिफारिशें कागजों पर बनी रहीं. अब उन्हीं के आधार पर मोदी सरकार ने साहसपूर्वक तीन कानून बना दिये तो तूफान मचा दिया. विरोध इस बात का है कि इन कानूनों से छोटे किसान बर्बाद हो जाएंगे, उनकी जमीने छिन जाएंगी, वे मजदूर बन कर रह जाएंगे. जबकि सरकार का कहना है कि ये कानून किसानों की आय को दो गुना कर देंगे, कृषि क्षेत्र में क्रांति ला देगें. इनसे  देश की अर्थव्यवस्था भी सुधर जाएगी. कृषि उपज में देश आत्मनिर्भर हो जाएगा.
किसान कैसे बर्बाद हो जाएंगे तो यह इस कल्पना पर आधारित है कि उनकी खेती और जमीन पर अडानी और अंबानी जैसे बड़े व्यापारिक घराने काबिज हो जाएंगे. पूरी खेती पर तत्काल न सही पर धीरे धीरे पूरी खेती और कृषि उपज व्यापार पर कब्जा कर लेंगे. किसानों की जमीनें भी उनसे छिन कर वे कब्जा कर लेंगे.
यह कैसे होगा तो वे कल्पना आधारित जवाब देते हैं कि अंबानी की कंपनी ने दूरसंचार की सरकारी कंपनी बीएसएनएल को बाजार से बाहर  कर दिया. कई निजी  दूरसंचार कंपनियों को भी मैदान से बाहर कर दिया. उसी प्रकार किसानों को भी बाहर  कर देंगे. कांट्रेक्ट खेती में कानूनी दावपेंच में छोटे किसान उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे. इससे वे अपनी जमीन खोकर खेती से बाहर हो जाएंगे. यहां तक कहा गया कि ये कानून गैर संवैधानिक हैं.
आंदोलनकारियों ने सितंबर से आंदोलन छेड़ रखा है. उनका मुख्य मैदान पंजाब रहा. रेलें रोकी, रास्ते रोके, किसानों के गले इस बात को उतारा कि सरकार द्वारा बनाए गये कानून उनके खिलाफ हैं. उनकी औलादों तक को वे खेती से बाहर कर देंगे.
फिर एक सोची समझी रणनीति के तहत उन्होंने दिल्ली कूच करने का आव्हान किया. उनके साथ सेना के टैंकों जैसी ताकत और बख्तरबंद सैन्य वाहनों सरीखे मजबूत चालक केबिन वाले कुछ ट्रैक्टर भी थे. किसान नेताओ का प्रभाव हरियाणा में भी था. उनकी मदद से उन्होंने सारे अवरोधों को तोड़ कर दिल्ली की सीमा पर डेरा डाल दिया और कह दिया कि वे छह माह की तैयारी से आए हैं. संसाधनों की उनके पास कमी नहीं थी. देखते देखते वे दिल्ली में तीन प्रवेश स्थलों पर पहले सैंकडांे और बाद में हजारों की संख्या में जमा हो गये.
केन्द्र सरकार ने उनसे बातचीत की कोशिश की. उनसे समिति बना कर बात की और तीनों कानूनों पर एक एक धारा वार चर्चा की कोशिश की और कहा कि जिसमें जो आपत्ति हो उसे बताएं, सुधार बताए सरकार उन सब पर विचार करेगी. सरकार ने उनकी बात मान अन्य मुदृदों पर भी बात की और मानी भी जिसमें दिल्ली की हवा में जहर घोलने वाली पराली को जलाने वाले कानून से किसानों को बाहर करने तक की बात मान ली. मुफ्त में बिजली देने वाले पंजाब की बिजली वितरण कंपनियोंकी दशा सुधारने के लिये तैयार किये जा रहे बिजली सुधार बिल के तो ड्राफ्ट को ही खत्म कर दिया गया. कानूनों में सुधार का जो बिंदुवार प्रस्ताव भेजा गया वह भी ठुकरा दिया गया. बस एक जिद पकड़ ली कि तीनो कानूनों को वापस लो. कोई दलील नहीं. इस प्रकार नौ दौर की वार्ताओं में समय निकाल दिया और आंदोलन को तरह तरह से विस्तार देते गये. ग्यारहवी बैठक में सरकार ने इन कानूनों को एक दो वर्ष स्थगित करने से भी कथित बहुमत से अस्वीकार कर दिया. दर्जनभर से ज्यादा यूनियनें इन्हें आंदोलन को स्थगित करने के पक्ष में थी तो इससे कुछ ज्यादा आंदोलन जारी करने के पक्ष में. इससे यह बात सही साबित हो गई की कुछ यूनियनों और उनका लक्ष्य किसानों की भलाई नहीं राजनीतिक है. वे आंदोलन का उपयोग मोदी को हटाने के लिये माहौल बनाने के लिये कर रहे हैं. तब बारहवी बैठक में सरकार ने अपना रवैया सख्त कर दिया और कहा कि किसान नेता अपने फैसले पर पुनर्विचार करें या नया प्रस्ताव लेकर सामने आएं तभी वार्ता होगी.
आंदोलनकारियों की जिद और सरकार की सख्ती ने बातचीत की राह रोक दी.  आंदोलनकारी किस प्रकार से निहित स्वार्थो से खेल रहे हैं इसका अंदाज इसी बात से लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने दायरे को विस्तार देते हुए कानूनों के क्रियान्वयन को दो माह के लिये स्थगित कर दिया और कहा कि वह कानूनों को समझने के लिये एक विशेषज्ञों की कमेटी बना रहा है. किसान उसके पास जाकर अपने  सुझाव और आपत्तियां बताएं. अदालत कमेटी की रिपोर्ट का उपयोग कानूनों को समझने के लिये करेगी. कमेटी इन कानूनों पर कोई फैसला नहीं सुनाने जा रही है. फिर भी किसान नेता उसके सामने नहीं गये और बहिष्कार कर दिया जो यह बताता है कि उनके पास कानूनों के खिलाफ कोई तर्क नहीं हैं बस भय का आधार ही है वह भी उस भय का जो स्वयं निराधार है.
संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि शाहीनबाग आंदोलन हो या किसान आंदोलन ये काल्पिनिक भय पर टिके हैं. ये शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के मूल अधिकार सरीखे हक की मूल अवधारणाओं पर कुठाराघात जैसे ही हैं. ये संविधान में दी गई आजादी को जरूरत से ज्यादा बताने वाले कुतर्को को वजन प्रदान करते हैं. ये आंदोलन सुप्रीम कोर्ट की उस निर्देश के खिलाफ भी है जो कहते है कि नागरिकों की आजादी में अवरोध पैदा करने वाले, सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाने वाले आंदोलन कानून सम्मत नहीं हैं उनके साथ प्रशासन को विवेकसम्मत सख्ती अपनानी चाहिये. पर राजनीतिक लाभ हानि का गणित राज्य सरकारों को मजबूर करता है कि वह इनसे निपटने में प्रशासन के हाथ बांध दे. ऐसा होना स्वाभाविक भी है. रााजनीतिक लाभ के लिये किये जा रहे आंदोलन से निपटने के तौर तरीकों को लेकर फैसला भी राजनीतिक लाभ हानि को ध्यान में रखकर ही होगा. उसी का नतीजा है कि शाहीनबाग आंदोलन लंबा चला और किसान आंदोलन भी लंबा चलने का रिकार्ड दर रिकार्ड कायम करता जा रहा है.    

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