किसान रैली कल 26 जनवरी को होगी. उसको लेकर पुलिस और आंदोलनकारी किसान नेताओं की विस्तार से बातचीत हुई है. यह इजाजत सशर्त है. पर आंदोलनकारी इसे अपनी जीत के तौर पर पेश करने की तैयारी में हैं. सरकार को इसमें कोई आपत्ति नहीं है. लेकिल सवाल यह भी तो है कि क्या किसान इसे मानेंगे. शायद नहीं क्योंकि इस पर सर्वहारा की तानाशाही की आवाज लगाने वाले हावी हैं. वे किसानों की तानाशाही की राह पर चल रहे हैं जिसका सामना लोकतंत्र में यकीन रखने वाले किसान नेता नहीं कर पा रहे हैं. क्योंकि तानाशाही समर्थकों की तरह उनकी भी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हैं जो किसान हितों पर भारी पड़़ रही हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो कभी का यह आंदोलन स्थगित हो गया होता. साल डेढ़ साल कह रही सरकार दो साल तक भी कृषि सुधार कानूनों को स्थगित करने को तैयार है और इसे दो साल तक ले जाने का मन भी बना चुकी है. इतने समय बाद तो चुनाव इतने करीब आ चुके होंगे कि सरकार शायद ही इस ताकत और संकल्प के साथ आगे बढ़ सके जितने से आज बढ़ने की मनस्थिति में दिख रही है. तब तक आंदोलनकारी भी अपना पक्ष देशभर के किसानों के गले उतार चुके होंगे.
हां, आंदोलनकारियों को डर है कि हो सकता है कि उनकी ताकत कमजोर पड़ जाए और वे आज जैसा ताकतवर आंदोलन खड़ा नहीं कर पाएं. यह भी आशंका है कि ये कानून किसानों के हितकारी है यह बात कानून समर्थक देशभर को समझाने में कामयाब हो जाएं और आंदोलन की हवा ही निकल जाए. वे जानते हैं कि जनमानस के पारखी मोदीजी के आगे उनका निराधार आंदोलन टिक नहीं पाएगा. दो चार एकड़ के पंजाब के किसान दस एकड़ या उससे ज्यादा जमीन वाले किसानों के कब्जे में हैं. वे इन ठेकेदारों के आगे बोल नहीं पाते. इसलिये पंजाब और हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तरप्रदेश में ही आंदोलन का जोर है. उसके बाद असर छिटपुट है. क्योंकि शेष भारत में दो चार एकड़ के किसान खुद खेती करते हैं फिर वह भले ही उनके लिये हानिकारक हो या कम फायदेमंद. उन किसानों के दिल दिमाग पर मोदीजी राज करते हैं. उनको केन्द्र सरकार से काफी सुविधाएं और लाभ मिल जाते हैं. वहीं राज्यों में किसी की भी सरकार हो वे भी इन किसानों को ज्यादा सुविधाएं दे रहे हैं. यही कारण है कि आंदोलन का ज्यादा फैलाव नहीं हो पा रहा है. जो थोड़ा बहुत दिखता है उसके पीछे गैर भाजपाई दलों की ताकत है.
फिलहाल सवाल ट्रैक्टर रैली का है आंदोलनकारी किसान नेता अगर पुलिस की शर्तों को सख्ती से मानवाकर रैली निकाल लेते है तो शक्ति प्रदर्शन का उनका जो लक्ष्य है उसे वे पा लेंगे. संदेह और आशंका यही है कि जिन्होंने केन्द्र के प्रस्ताव को आगे नहीं आने दिया वे शर्तों को तोड़कर अशांति से बाज शायद नहीं आएं. अब देखना यही है कि कल 26 जनवरी कितनी शांति से गुजरती है. भगवान से प्रार्थना है कि वह शांति कायम रहे.