हमें पढ़ाया गया कि भारत का संविधान संघात्मक होते हुए भी एकात्मक है. कारण यह है कि विभिन्न विषयों को राज्यों और केन्द्र के बीच बांटने के बाद समवर्ती सूची बनाई गई.
कृषि से संबंधित विषयों में भी बहुत थोड़े से विषयों को केन्द्र को सौंपा गया पर ज्यादातर को राज्यों को दिया गया है. व्यवस्था के लिये बीच का रास्ता निकालते हुए कृषि के चंद विषय समवर्ती सूची में डाल दिये गये.
इसलिये बार बार जोर देकर कहा जा रहा है कि कृषि तो राज्य का विषय है फिर केन्द्र ने दो कृषि कानून क्यों बना दिये. तीसरे कृषि को प्रभावित करने वाले कानून को संशोधित कर दिया. यह गलत है.
लेकिन सिर्फ ऐसा नहीं है. संविधान केन्द्र को यह अधिकार भी संविधान देता है कि जब केन्द्र सरकार को जरूरी लगे तो वह बिना सूची की चिंता करे कानून बना सकता है. इसी प्रावधान के तहत आवश्यक वस्तु अधिनियम बनाया गया था जिसमें संशोधन किया गया है. इसी को कृषि सुधार का तीसरा कानून कहा जा रहा है.
दो कानून कई समितियों और राजनीतिक दलों की घोषणाओं को ध्यान में रखकर बनाए गये हैं. उन्हें संसद के दोनों सदनों ने पारित भी किया है. सरकार की और से सुप्रीम कोर्ट में दावा भी किया गया कि इन्हें तभी स्थगित किया जा सकता है जब ये संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन करते हों या मूल अधिकारों के खिलाफ हो. पर अदालत ने अपने अधिकार का उपयोग कर इन कानूनों को निलंबन में रख दिया और क्रियान्वयन को रोक दिया. साथ ही कमेटी बना दी.
दावा किया जा रहा है कि कानून लाने के पहले इन से संबंधित पक्षों से सलाह मशविरा नहीं किया गया. सरकार इसके खंडन में बताती है कि कितनी समितियों और घोषणापत्रों में इस बारे में विचार रखे जा चुके हैं. यह कहा जा रहा है कि इसे संसदीय समिति या सिलेक्ट कमेटी को नहीं सौंपा गया. ऐसा होता तो इतना विरोध नहीं होता. आपत्तियां पहले ही छंट जाती. अदालत ने कमेटी बना कर उन सारी आपत्तियों सुधारों और सुझावों के लिये रास्ता भी तो खोल दिया है, उसका फायदा उठाने में क्यों पीछे हटा जा रहा है.