हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टोे में यह लंबी प्रक्रिया और परंपरा रही है कि सीनियर वकीलों को न्यायाधीश बनाया जाता है. वे विभिन्न विचारधाराओं से आते हैं लेकिन उसके बाद भी कभी उनकी निप्पक्षता पर सवाल नहीं उठाऐ गये. सुप्रीम कोर्ट ने जो कमेटी बनाई वे विद्वान हैं उसमें किसी को आपत्ति भले ही न हो पर आपत्ति यह की जा रही है कि उनकी कृषि को लेकर एक खास धारणा रही है. नये किसान कानून बनने के बाद उन्होंने इसे कुछ ज्यादा मुखर तरीकों से व्यक्त भी विभिन्न लेखों के माध्यम से किया भी है. पर क्या विद्वान कृषि विज्ञानी वि़द्वान वकीलों के समान निष्पक्ष नही हो सकता? सुप्रीम कोर्ट को यकीन रहा होगा कि ये जब अदालत की मदद को नियुक्त किये जाएंगे तो निप्पक्ष रहेंगे तभी तो इन्हें अवसर मिला. इस पक्षपाती सोच से तो यही पता चल रहा है कि कृषि कानून के खिलाफ बोल रहे वकीलों की नियुक्ति ही एक मात्र सही कदम हो सकता था. सोमवार की बहस में अदालत ने नाम मांगे भी थे खासकर न्यायविदों के पर लोया का एकमात्र नाम सुझाकर सब चुप हो गये. न्यायविदों के साथ कमेटी मेंबर्स के नाम भी सुझा देते तो क्या हो जाता? मानना न मानना तो अदालत पर निर्भर था. अब जिस प्रकार से आपत्ति ली जा रही है तो अगर अदालत लोया की नियुक्ति कर भी देती तो उन पर भी आपत्ति हो जाती क्योंकि वे उन पूर्व न्यायाधीशों की सूची में शामिल हैं जो इन कानूनों के खिलाफ जारी बयान पर हस्ताक्षर कर्ता रहे हैं.
मोदीजी के सत्ता में आने के बाद से तिलमिलाए वामपंथी और कांग्रेसी बात बात में कभी नौकरशाह तो कभी साहित्यकारों, कभी वकीलों तोे कभी पूर्व न्यायाधीशों के नाम से सरकार के खिलाफ बयान जारी करवाते रहते हैं. पहले कुछ दिन तो मोदी समर्थक चुप रहे पर जब बात हाथ से निकलती दिखी तो मोदी समर्थक भी सरकार के समर्थन में बयान निकलवाने लगे. बयानबाजी से हस्ताक्षरकर्ताओं की साख दो कोड़ी की होकर रह गई है.
लोकतंत्र में सभी को अपनी पसंद के विचार और विचारधारा जरूर रखनी चाहिये. उसे आजादी के साथ व्यक्त भी करना चाहिये. पर भेड़चाल की तरह नहीं.