मध्यप्रदेश में परीक्षा से भागते शिक्षक

Category : मेरी बात - ओमप्रकाश गौड़ | Sub Category : सभी Posted on 2021-01-06 05:35:01


मध्यप्रदेश में परीक्षा से भागते शिक्षक

लंबे अरसे से खराब परीक्षा परिणाम के लिये शिक्षकों को दंडित करने की परंपरागत पद्धति केा बदल कर शिक्षकों की परीक्षा लेकर इस कमी को सुधारने का अभिनव प्रयोग किया  है. अभी तक होता यही था कि खराब परिणाम आया तो शिक्षकों के साथ साथ बच्चों की शामत सी आ जाती थी. शिक्षक का  तबादला करने,   वेतनवृद्धि रोकने, सर्विस बुक में टिप्पणी लिखने जैसी दंडात्मक कार्यवाही की जाती थी. बच्चों को भी रेमिडियल कक्षाओं में जाना पड़ता था.
पर इस बार नवाचार करते हुए जिन स्कूलों और कक्षाओं का रिजल्ट कमजोर आया उनके शिक्षकों को परीक्षा देने को कहा गया. ओपन बुक परीक्षा हुई. और 48  नबंर लाने की बाध्यता रखी गई. जो नहीं ला पाये उन्हें फिर से तैयारी कर परीक्षा में बैठना पड़ेगा.
पहले तरीके में माना जाता था कि बच्चे तो पढ़ाई में कमजोर है ही, शिक्षक ने भी ठीक से नहीं  पढ़ाया है, उसका यह नतीजा है. जबकि दूसरे तरीके में यह जानने की कोशिश की गई है कि कहीं शिक्षक का ज्ञान का स्तर तो कमजोर नहीं है? कमजोर जानकारी वाला शिक्षक बेहतर तरीके से कैसे पढ़ा सकता है.
शिक्षकों की यूनियन बाजी ने इसमें काफी बाधाएं डाली पर शिवराज सरकार टस से मस नहीं हुई और परीक्षाएं हुई. मजेदार बात यह है कि इसमें कुछ शिक्षक 48 नंबर तक नहीं ला पाए. फेल हो गये या कहें  सप्लीमेंट्री में आ गये. कुछ परीक्षा देने आये ही नहीं. उसके कई कारण हो सकते हैं लेकिन माना यही जा रहा है कि ज्यादातर ने तो डर  के मारे परीक्षा नहीं दी कि कहीं फेल न हो जाएं. उन्हें अपनी पहुंच और भ्रष्टाचार की क्षमता पर भरोसा है कि वे रास्ता निकाल लेंगे.
पर क्या यह बात किसी को खटकती नहीं है कि न्यूनतम 48 नंबर ही क्यों? जब शिक्षक ही थर्ड क्लास में पास होने की योग्यता रखते हैं तो वे फस्र्ट क्लास में आने वाले बच्चे कैसे तैयार कर सकेंगे?
शिक्षा के क्षेत्र में आने वाले शिक्षक बनने के बाद किताब से नाता ही तोड़ लेते हैं. कुछ न नया करते हैं न सीखते हैं. बस नौकरी करते हैं. शिक्षा विभाग की नीतियां ही जब ऐसी ही हो तो वैसे भी सुधार की उम्मीद कम से कम मैं नहीं करता. जो एलएल लोनी की ट्रिगनोमेट्री मैंने पढ़ी वही किताब उसी लेखक की मेरे बेटे ने भी पढ़ी. तो क्या दस पन्द्रह साल में इस विषय का स्तर उंचा उठा ही नहीं?
पर ऐसा नहीं है. जब मैं ग्यारहवीं में पास हुआ तो गणित के कुल चार बच्चों में से पास होने वाला मैं अकेला था. प्रथम श्रेणी में आने वाले मेरे सहित दो चार बच्चे ही थे. पर आज उसी शहर में मामा की घोषणा के अनुरूप लेपटाप पाने वाले यानि 80 प्रतिशत से ज्यादा अंक लाने वाले दो दर्जन से ज्यादा होते हैं और प्रथम श्रेणी में आने वाले तो चार दर्जन से ज्यादा.
शिक्षा का स्तर उठाना है तो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री को चाहिये कि वे साहस कर के हर साल सभी क्षिक्षकों की परीक्षा करवा कर उनका ज्ञान परखने का सिलसिला जारी रखें. उनकी मेरिट लिस्ट भी जारी कर उच्च श्रेणी लाने वालों को प्रोत्साहन दें. पर यूनियन बाजी के इस दौर में मुझे ऐसा संभव नहीं लगता. इतना ही नहीं मुझे यकीन है कि ऐसा किया गया तो कोई सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगा देगा कि समानता के मूल अधिकार का हनन हो रहा है? बाबू तो मौज मार रहे हैं और कोई परीक्षा नहीं दे रहे और गरीब मास्साब को परीक्षा पर  परीक्षा लेकर प्रताड़ित किया जा रहा है. देश का भविष्य गढने वालों के साथ अन्याय हो रहा है.    

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